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उत्तराध्ययनसूत्र
(१२) कायोत्सर्ग, (१३) प्रत्याख्यान, (१४) स्तव-स्तुतिमंगल, (१५) कालप्रतिलेखना, (१६) प्रायश्चितकरण, (१७) क्षामणा-क्षमापना, (१८) स्वाध्याय, (१९) वाचना, (२०) प्रति-पृच्छना, (२१) परावर्तना (पुनरावृत्ति) (२२) अनुप्रेक्षा (२३) धर्मकथा, (२४) श्रुत-आराधना, (२५) एकाग्रमनोनिवेश, (२६) संयम, (२७) तप, (२८) व्यवदान (विशुद्धि), (२९) सुखसाता, (३०) अप्रतिबद्धता, (३१) विविक्तशय्यासन-सेवन, (३२) विनिवर्तना, (३३) संभोग-प्रत्याख्यान, (३४) उपधि-प्रत्याख्यान, (३५) आहार-प्रत्याख्यान, (३६) कषायप्रत्याख्यान, (३७) योग-प्रत्याख्यान, (३८) शरीर-प्रत्याख्यान, (३९) सहाय-प्रत्याख्यान, (४०) भक्तप्रत्याख्यान, (४१) सद्भाव-प्रत्याख्यान, (४२) प्रतिरूपता, (४३) वैयावृत्त्य, (४४) सर्वगुणसम्पन्नता, (४५) वीतरागता, (४६) क्षान्ति, (४७) मुक्ति (–निर्लोभता), (४८) आर्जव (ऋजुता), (४९) मार्दव (मृदुता), (५०) भावसत्य, (५१) करणसत्य, (५२) योगसत्य, (५३) मनोगुप्ति, (५४) वचनगुप्ति, (५५) कायगुप्ति, (५६) मन:समाधारणता, (५७) वच:समाधारण, (५८) कायसमाधारणता, (५९) ज्ञानसम्पन्नता, (६०) दर्शनसम्पन्नता, (६१) चारित्रसम्पन्नता, (६२) श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह (६३) चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह, (६४) घ्राणेन्द्रिय-निग्रह, (६५) जिह्वेन्द्रिय-निग्रह, (६६) स्पर्शेन्द्रिय-निग्रह, (६७) क्रोधविजय, (६८) मानविजय, (६९) मायाविजय, (७०) लोभविजय (७१) प्रेय-द्वेष-मिथ्यादर्शनविजय, (७२) शैलेशी (अवस्था), और (७३) अकर्मता (–स्थिति)।
विवेचना-सुधर्मास्वामी का जम्बूस्वामी के प्रति कथन-यद्यपि सुधर्मास्वामी (पंचम गणधर) स्वयं श्रुतकेवली थे, अतः उनके द्वारा जम्बूस्वामी को कहा गया वचन प्रामाणिक ही होता, फिर भी उन्होंने स्वयं अपनी ओर से कथन न करके आयुष्मान् भगवान महावीर का उल्लेख किया है। वह इस दष्टि से कि लब्धप्रतिष्ठ साधक को भी गुरुमाहात्म्य प्रकट करने के लिए गुरु द्वारा उपदिष्ट सूत्र और अर्थ का प्रतिपादन करना चाहिए। अतएव स्वयं अपने मंह से सीधे न कह कर भगवान के श्रीमख से उपदिष्ट का कथन किया।
सम्यक्त्व-पराक्रम : अर्थ-आध्यात्मिक जगत् में, अथवा जिनप्रवचन में सम्यक्त्व के अथवा गुण और गुणी का अभेद मानने पर जीव के सम्यक्त्व गुणयुक्त होने पर जो पराक्रम किया जाता है, अर्थात्उत्तरोत्तर गुण (मूल-उत्तरगुण) प्राप्त करके कर्मरिपुओं पर विजय पाने का सामर्थ्यरूप पुरुषार्थ (पराक्रम) किया जाता है, वह सम्यक्त्व पराक्रम कहलाता है।
__अध्ययन का माहात्म्य और फल-सम्यक्त्व-पराक्रम एक साधना है, समग्रतया शुद्धरूप में होने पर जिसके द्वारा जीव मोक्ष रूप फल प्राप्त कर लेता है। इसी तथ्य का निरूपण करते हुए शास्त्रकार कहते हैंसम्यक्त्वपराक्रम-साधना की पराकाष्ठा पर पहुंचने का क्रम इस प्रकार है
(१) सद्दहित्ता–सम्यक् (अविपरीत) रूप से श्रद्धा करके, (२) पत्तइत्तातत्पश्चात् शब्द, अर्थ और उभयरूप से सामान्यतया प्रतीति (प्राप्ति) करके, अथवा यह कथन उक्तरूप ही है, इस प्रकार ही है, यह विशेषतया निश्चित करके, अथवा संवेगादिजनित फलानुभवरूप विश्वास से प्रतीति करके, (३) रोयइत्तातदनन्तर उक्त अध्ययन में कथित अनुष्ठानविषयक या उक्त अध्ययन-विषयक रुचि (आत्मा में उसकी अभिलाषा) उत्पन्न करके (क्योंकि किसी वस्तु के गुणकारी होने पर भी कठोर या कष्टसाध्य होने से कटु-औषध की तरह अरुचि हो सकती है, इसलिए तद्विषयक रुचि होना अनिवार्य है) (५) फासित्ता—फिर उस अध्ययन में उक्त अनुष्ठान का स्पर्श करके अर्थात् आचरण में लाकर, (६) तीरित्ता–उक्त अध्ययन में विहित कर्त्तव्य को १ -तरा. बृ. वृत्ति, अ.रा. कोश. भा.७, पृ. ५०४, २. वही, भा.७, पृ. ५०४