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उत्तराध्ययनसूत्र
कुप्रथाओं को धर्म मानना। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों के अनुसार मूढता का अर्थ-एकान्तवादी, कुपथगामियों तथा षडायतनों (मिथ्यात्व, मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञान, मिथ्याज्ञानी, मिथ्याचारित्र, मिथ्याचारित्री) की प्रशंसा, स्तुति, सेवा या सम्पर्क अथवा परिचय करना भी है।
५. उपबृंहण—इसके अर्थ हैं—(१) प्रशंसा, (२) वृद्धि, (३) पुष्टि। यथा—(१) गुणीजनों की प्रशंसा करके उनके गुणों को बढ़ावा देना, (२) अपने आत्मगुणों (क्षमता, मृदुता आदि) की वृद्धि करना, (३) सम्यग्दर्शन की पुष्टि करना। कई आचार्य इसके बदले उपगूहन मानते हैं । जिसका अर्थ है-(१) परदोषों का निगूहन करना, अथवा अपने गुणों का गोपन करना।२
६. स्थिरीकरण-सम्यक्त्व अथवा चारित्र से चलायमान हो रहे व्यक्तियों को पुनः उसी मार्ग में स्थिर कर देना, या उसे अर्थादि का सहयोग देकर धर्म में स्थिर करना स्थिरीकरण है।
७. वात्सल्य-अहिंसादि धर्म अथवा साधर्मिकों के प्रति हार्दिक एवं नि:स्वार्थ अनुराग, वत्सलभाव रखना तथा साधर्मिक साधुवर्ग की या श्रावकवर्ग की सेवा करना।
८. प्रभावना-प्रभावना का अर्थ है-(१) रत्नत्रय से अपनी आत्मा को भावित (प्रभावित) करना, (२) धर्म एवं संघ की उन्नति के लिए चिन्तन, मंगलमयी भावना करना। आठ प्रकार के व्यक्ति प्रभावक माने जाते हैं—(१) प्रवचनी, (२) वादी, (३) धर्मकथी, (६) नैमित्तिक, (७) सिद्ध (मन्त्रसिद्धिप्राप्त आदि) और (८) कवि। चारित्र : स्वरूप और प्रकार
३२. सामाइयत्थ पढमं छेओवद्वावणं भवे बीयं।
परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च॥ - [३२] चारित्र के पांच प्रकार हैं-पहला सामायिक, दूसरा छेदोपस्थापनीय, तीसरा परिहारविशुद्धि, चौथा सूक्ष्म-सम्पराय और
३३. अकासायं अहक्खायं छउमत्थस्स जिणस्य वा।
एयं चयरित्तकरं चारित्तं होइ आहियं॥ १. (क) रत्नकरण्डश्रावकाचार १/२२-२३-२४ (ख) कापथे पथि दुःखानां । कापथस्थेऽप्यसम्मतिः।
असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढादृष्टिरुच्यते॥ - रत्नकरण्डश्रावकचार १/१४ (ग) अणादयणसेवणा चेव-अनायतनं षडविधं-मिथ्यात्वं, मिथ्यादृष्टयः, मिथ्याज्ञानं, तद्वन्तः, मिथ्याचारित्र मिथ्याचारित्रवन्त इति।
-मूलाराधना १/४४ २. धर्मोऽभिवर्द्धनीयः, सदात्मनो मार्दवादि विभावनया।
परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ॥ - पुरुषार्थसिद्धयुपाय २८ ३. दर्शनाच्चरणाद्वाऽपि चलतां धर्मवत्सलैः।
प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितीकरणमुच्यते॥ -रत्नकरण्डश्रावकाचार १/१६ ४. वत्सलभावो वात्सल्यं-साधर्मिकजनस्य भक्तपानादिनोचितप्रतिपत्तिकरणम्। -बृहद्वृत्ति, पत्र ५६७ ५. (क) प्रभावना च–तथा तथा स्वतीर्थोन्नतिचेष्टासु प्रवर्तनात्मिका। - वही, पत्र ५६७
(ख) योगशास्त्र २/१६ वृत्ति, पत्र ६५