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अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति
स्वधर्मी के प्रति वत्सलता या प्रभावना सम्भव है । १
१. निःशंकता — जिनोक्त तत्त्व, देव, गुरु, धर्म-संघ या शास्त्र आदि में देशतः या सर्वतः शंका का न होना सम्यग्दर्शनाचार का प्रथम अंग निःशंकता है। शंका के दो अर्थ किये गए हैं—संदेह और भय । अर्थात् जिनोक्त तत्त्वादि के प्रति संदेह अथवा सात भयों से रहित होना निःशंकित सम्यग्दर्शन है । २
२. निष्कांक्षा—कांक्षारहित होना निष्कांक्षित सम्यग्दर्शन है। कांक्षा के दो अर्थ मिलते हैं— (१) एकान्तदृष्टि वाले दर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा, अथवा (२) धर्माचरण से इहलौकिक - पारलौकिक वैभव या सुखभोग आदि पाने की इच्छा। ३
३. निर्विचिकित्सा — विचिकित्सा रहित होना सम्यग्दर्शन का तृतीय आचार है । विचिकित्सा के भी दो अर्थ हैं—(१) धर्मफल में सन्देह करना और (२) जुगुप्सा — घृणा । द्वितीय अर्थ का आशय है—रत्नत्रय से पवित्र साधु-साध्वियों के शरीर को मलिन देख कर घृणा करना, या सुदेव, सुगुरु, सुधर्म, आदि की निन्दा करना भी विचिकित्सा है।
४. अमूढदृष्टि- - देवमूढता, गुरुमूढता, धर्ममूढता, शास्त्रमूढता, लोकमूढता आदि मूढताओं — मोहमयी दृष्टियों से रहित होना अमूढदृष्टि है। देवमूढता — रागी -द्वेषी देवों की उपासना करना, गुरुमूढता — आरम्भपरिग्रह में आसक्त, हिंसादि में प्रवृत्त, मात्र वेषधारी साधु को गुरु मानना, धर्ममूढता — अहिंसादि शुद्ध धर्मतत्त्वों को धर्म न मानकर हिंसा, आरम्भ, आडम्बर, प्रपंच आदि से युक्त सम्प्रदाय या मत-पंथ को या स्नानादि आरम्भजन्य क्रियाकाण्डों या अमुक वेष को धर्म मानना धर्ममूढता है। शास्त्रमूढता — हिंसादि की प्ररूपणा करने वाले या असत्य-कल्पनाप्रधान अथवा राग द्वेषयुक्त अल्पज्ञों द्वारा जिनाज्ञा - विरुद्ध प्ररूपित ग्रन्थों को शास्त्र मानना । लोकमूढता — अमुक नदी या समुद्र में स्नान, अथवा गिरिपतन आदि लोकप्रचलित कुरूढियों या
— तत्त्वार्थ ७/१८
१. (क) मूलाराधना २०१ (ख) रत्नकरण्ड श्रावकाचार २१ (ग) कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४२५ (घ) शंका-कांक्षा-विचिकित्साऽन्यदृष्टि - प्रशंसा : - संस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः। (ङ) तत्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति, ७/२३ पृ. २४८
(क) 'शंकनं शंकितं देशसर्वशंकात्मकं तस्याभावो निःशंकितम् ।' - बृ. वृत्ति, पत्र ५६७
(ख) 'सम्मद्दिट्ठी जीवा, णिस्संका होंति णिब्भया तेण ।
४५१
२.
४.
सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा हु णिस्संका ॥ '
-समयसार गा. २२८
(ग) 'तत्रं शंका—यथा निर्ग्रन्थानां मुक्तिरुक्ता तथा सग्रन्थानामपि गृहस्थादीनां किं मुक्तिर्भवतीति शंका, अथवा भयप्रकृतिः शंका। ' – तत्वार्थ, वृत्ति ७/ २३
३.
(क) 'इहपर - लोकभोगाकांक्षणं कांक्षा । - तत्त्वार्थ. वृत्ति ७/२३
(ख) इहजन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् । एकान्तवाददूषित - परसमयानपि
(ग) मूलाराधना विजयोदयावृत्ति १/४४
(क) 'विचिकित्सा — मतिविभ्रमः युक्त्यागमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं प्रति सम्मोहः । यद्वा विद्वज्जुगुप्सा — मलमालिना एते — प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र ६४
इत्यादि साधुजुगुप्सा ।'
च नाकांक्षेत् ॥ - पुरुषार्थ सिद्धयुपाय २४
(ख) रत्नकरण्ड श्रावकाचार १ / १३
(ग) यद्वा विचिकित्सा निन्दा सा च सदाचारमुनिविषया, यथा— अस्नानेन प्रस्वेदजलक्लिन्नमलत्वात् दुर्गन्धिवपुष एत इति । ' - योगशास्त्र २ / १७ वृत्ति, पत्र ६७