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उत्तराध्ययनसूत्र
परन्तु सम्यक्चारित्र के साथ उनका सहचर्य अवश्यम्भावी नहीं है। इसी का फलितार्थ यहाँ व्यक्त किया गया है कि सम्यग्दर्शन के विना ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता और सम्यग्ज्ञान के विना भावचारित्र नहीं होता। उत्क्रान्ति (विकास) के नियमानुसार चारित्र का यह नियम है कि जब वह प्राप्त होता है, तब उसके पूर्ववर्ती सम्यग्दर्शन आदि दो साधन अवश्य होते हैं। दूसरी बात यह भी है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान परिपूर्ण रूप में हों, तभी सम्यक्चारित्र परिपूर्ण हो सकता है। एक भी साधन के अपूर्ण रहने पर परिपूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता। यही कारण है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान परिपूर्ण रूप में प्राप्त हो जाने पर भी सम्यक्चारित्र की अपूर्णता के कारण तेरहवें गुणस्थान में पूर्ण मोक्ष, अर्थात् विदेहमुक्ति — अशरीर - सिद्धि नहीं होती। वह होती है— शैलेशीअवस्थारूप पूर्ण (यथाख्यात) चारित्र के प्राप्त होते ही १४ वें गुणस्थान के अन्त में। इसी बात को प्रस्तुत गाथा ३० में व्यक्त किया गया है कि चारित्रगुण के विना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष (सम्पूर्ण कर्मक्षय) के विना निर्वाण - विदेहमुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। निष्कर्ष यह कि इसमें सर्वाधिक महत्ता एवं विशेषता सम्यग्दर्शन की है। वह हो तो ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है और चारित्र भी । ज्ञान सम्यक् होने पर चारित्र का सम्यक् होना अवश्यम्भावी है।
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सम्यक्त्व के आठ अंग
३१. निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठि य ।
उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥
[३१] नि:कांता, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये आठ (सम्यक्त्व के अंग ) हैं ।
विवेचना — सम्यग्दर्शन : प्रकार और अंग — सम्यग्दर्शन के दो प्रकार हैं— निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन । निश्चय सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध मुख्यतया आत्मा की अन्तरंगशुद्धि या सत्य के प्रति दृढ श्रद्धा से है, जबकि व्यवहार सम्यदर्शन का सम्बन्ध मुख्यतया — देव, गुरु, धर्म- संघ, तत्त्व, शास्त्र आदि के साथ
। परन्तु साधक में दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शनों का होना आवश्यक है। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का निरूपण भी इन्हीं दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शनों को लेकर किया गया है। जैसे एक-दो अक्षररहित अशुद्ध मंत्र विष की वेदना को नष्ट नहीं कर सकता, वैसे ही अंगरहित सम्यग्दर्शन भी संसार की जन्ममरण-परम्परा का छेदन करने में समर्थ नहीं है। वस्तुतः ये आठों अंग सम्यक्त्व को विशुद्ध करते हैं। ये आठ अंग सम्यक्त्वाचार के आठ प्रकार हैं। जैनागमों में सम्यग्दर्शन के ५ अतिचार बताए हैं— शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषण्डप्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव। सम्यक्त्वाचार का उल्लंघन करना अथवा सम्यक्त्व को दूषित या मलिन करना ‘अतिचार' है। प्रस्तुत गाथा आचारात्मक अंग ८ हैं, जबकि अतिचारात्मक ५ हैं। शंका, कांक्षा और विचिकित्सा, ये तीन अतिचार तो तीन आचारों के उल्लंघन के रूप में हैं। शेष रहे ५ आचार, इनके उल्लंघन के रूप में परपाषण्डप्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव ये दो हैं ही । यथा— जो मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा, स्तुति या घनिष्ठ सम्पर्क करता है वह मूढदृष्टि तो है ही, वह गुणी सम्यग्दृष्टि के गुणों का उपबृंहण, प्रशंसा या स्थिरीकरण नहीं करता और न उसमें
१.
(क) तत्त्वार्थसूत्र अ. १, सू. १, २, ६ ( पं. सुखलालजी) पृ. २, ८ (ख) उत्तरा (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २२९ - २३०