SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति ४५३ [३३] पांचवाँ यथाख्यातचारित्र है, जो सर्वथा कषायरहित होता है। वह छद्मस्थ और केवली—दोनों को होता है। यह पंचविध चारित्र कर्म के चय (संचय) को रिक्त (खाली) करता है, इसलिए यह चारित्र कहा गया है। विवेचना-चारित्र के दो रूपों में विरोध नहीं-गाथा ३३ में चारित्र का निरुक्त दिया है—'चयरित्तकर चारित्तं'। इसका भावार्थ यह है कि पूर्वबद्ध कर्मों का जो संचय है, उसे १२ प्रकार के तप से रिक्त करना चारित्र है। यह निर्जरारूप चारित्र है और आगे गाथा ३५ में 'चरित्तेण निगिण्हाइ' कह कर चारित्र का जो स्वरूप बताया है, वह संवररूप चारित्र है, अर्थात्-नये कर्मों के आश्रव को रोकना संवररूप चारित्र है। अत: इन दोनों में परस्पर विरोध नहीं है, बल्कि कर्मों से आत्मा को पृथक् करने के दोनों मार्ग हैं । ये दोनों चारित्र के रूप हैं। चारित्र के प्रकार और स्वरूप-चारित्र के पांच प्रकार यहाँ बताए गए हैं—(१) सामायिक चारित्र, (२) छेदोपस्थापनीय चारित्र, (३) परिहारविशुद्धि चारित्र, (४) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र और (५) यथाख्यात चारित्र । वास्तव में सम्यक्चारित्र तो एक ही है। उसके ये पांच प्रकार विशेष अपेक्षाओं से किये गए हैं। सामायिक चारित्र—जिसमें सर्वसावध प्रवृत्तियों का त्याग किया जाता है। विविध अपेक्षाओं से कथित छेदोपस्थापनीय आदि शेष चार चारित्र, इसी के विशेष रूप हैं। मूलाचार के अनुसार-प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र का उपदेश दिया था, मध्य के शेष २२ तीर्थंकरों ने सामायिक चारित्र का प्ररूपण किया। दूसरी बात यह है कि सामायिक चारित्र दो प्रकार का होता है—इत्वरिक और यावत्कथिक। इत्वरिक सामायिक का भगवान् आदिनाथ और भगवान् महावीर के (नवदीक्षित) शिष्यों के लिए विधान है, जिसकी स्थिति ७ दिन, ४ मास या ६ मास की होती है। तत्पश्चात् इसके स्थान पर छेदोपस्थापनीय अंगीकार किया जाता है। शेष २२ तीर्थकरों के शासन में सामायिक चारित्र 'यावत्कथिक' (यावज्जीवन के लिए) होता छेदोपस्थापनीय चारित्र-छेदोपस्थापनीय के यहाँ दो तात्पर्य हैं—(१) सर्वसावद्यत्याग का छेदशःविभागशः पंचमहाव्रतों के रूप में उपस्थिापित (आरोपित) करना, (२) दोषसेवन करने वाले मुनि के दीक्षापर्याय का छेद (काट) करके महाव्रतों को पुनः आरोपण करना। इसी दृष्टि से छेदोपस्थापनीय चारित्र के दो प्रकार बताए गए हैं—निरतिचार और सातिचार । छेद का अर्थ जहाँ विभाग किया जाता है, वहाँ निरतिचार तथा जहाँ छेद का अर्थ-दीक्षापर्याय का छेदन (घटाना) होता है, वहाँ सातिचार समझना चाहिए। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५६९ २. (क) सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एकं व्रतम. भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम। - तत्त्वार्थ राजवार्तिक (ख) 'बावीसं तित्थयरा सामायिकं संजय उवदिसंति। छेदोवट्ठावणियं पुण, भयवं उसहो य वीरो य॥' - मूलाचार ७/३६ (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६८ ३. (क) छेदैर्भेदैरूपेत्यर्थं, स्थापनं स्वस्थितिक्रिया। छेदोपस्थापनं प्रोक्तं सर्वसावधवर्जने॥ - आचारसार ५/६-७ (ख) सातिचारस्य यतेर्निरतिचारस्य वा शैक्षकस्य पूर्वपर्यायव्यवच्छेदरूपस्तद् युक्तोपस्थापना महाव्रतारोपणरूपा यस्मिस्तच्छेदोपस्थापनम्।
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy