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उत्तराध्ययनसूत्र भेद-सूक्ष्म और बादर । उनके दो-दो भेद हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त । वनस्पतिकाय के दो भेद-प्रत्येक और साधारण, फिर त्रास-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से ८ भेद हुए। इस प्रकर ४+२+८=१४ भेद। फिर एकेन्द्रिय के पृथ्वीकायादि ५ भेद जोड़ने से तथा पंचेन्द्रिय के जलचर आदि ५ भेद अथवा नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव तथा इनके भी भेद-प्रभेद मिलाकर अनेकानेक भेद-प्रभेद होते हैं। अजीव के धर्मास्तिकायादि ५ द्रव्यों के भेद से ५ भेद मुख्य हैं।
पुण्य के भेद-(१) अन्नपुण्य, (२) पानपुण्य, (३) लयनपुण्य, (४) शयनपुण्य, (५) वस्त्रपुण्य, (६) मनपुण्य, (७) वचनपुण्य, (८) कायपुण्य और (९) नमस्कारपुण्य । इन नौ कारणों से पुण्यबंध होता है तथा ४२ शुभ कर्मप्रकृतियों द्वारा वह भोगा जाता है।
___ पाप के भेद-(१) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) मैथुन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) पैशुन्य, (१५) परपरिवाद (१६) रति-अरति, (१७) मायामृषा और (१८) मिथ्यादर्शनशल्य । इन १८ कारणों से पापकर्म का बन्ध होता है और ८२ प्रकार की अशुभ प्रकृतियों से भोगा जाता है।
आश्रव के भेद—(१) मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच कर्मों के आश्रव के मुख्य कारण हैं। इनमें से प्रत्येक के अनेक-अनेक भेद-प्रभेद हैं। प्रकारान्तर से इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रिया ये चार मुख्य आश्रव हैं। इनके क्रमशः ५, ४, ५ और २५ भेद हैं।
संवर भेद-सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और आयोग ये ५ मुख्य भेद हैं। दूसरी तरह से १२ भावना (अनुप्रेक्षा),५ महाव्रत,५ समिति, ३ गुप्ति, २२ परीषहजय और १० श्रमणधर्म, यों कुल मिलाकर संवर के ५७ भेद हैं।
निर्जरा के भेद-तपस्या द्वारा कर्मों का आत्मा र पृथक् होना निर्जरा है। इसके साधनों को भी निर्जरा कहा गया है। इसलिए १२ प्रकार के तप के कारण निर्जरा के भी १२ भेद होते हैं अथवा उसके अकामनिर्जरा और सकामनिर्जरा, ये दो भेद भी हैं।
बन्ध के भेद-मिथ्यात्व, अव्रत आदि ५ कर्मबन्ध के हेतु होने से बन्ध के ५ भेद हैं । फिर शुभ और अशुभ के भेद से भी बन्ध के दो प्रकार होते हैं। प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और रसबन्ध, इन चार प्रकारों से बन्ध होता है।
मोक्ष तत्त्व के भेद - वैसे तो मोक्ष एक ही है, किन्तु मोक्ष के हेतु पृथक्-पृथक् होने से मुक्तात्माओं की पूर्वपर्यायापेक्षया १५ प्रकार का माना गया है- (१) तीर्थसिद्ध, (२) अतीर्थसिद्ध (३) तीर्थंकरसिद्ध, (४) अतीर्थंकरसिद्ध, (५) स्वयंबुद्धसिद्ध, (६) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (७) बुद्धबोधितसिद्ध, (८) स्वलिंगसिद्ध, (९) अन्यलिंगसिद्ध, (१०) गृहिलिंगसिद्ध, (११) स्त्रीलिंगसिद्ध, (१२) नपुंसकलिंगसिद्ध, (१३) एकसिद्ध और (१४) अनेकसिद्ध।
सम्यक्त्व : स्वरूप-तत्त्वभूत इन नौ पदार्थों के अस्तित्व के निरूपण में भावपूर्ण श्रद्धान अथवा मोहिनीयकर्म के क्षय और उपशम आदि से उत्पन्न हुए आत्मा के परिणामविशेष को सम्यक्त्व कहते हैं।
१. कर्मग्रन्थ प्रथम, गा.१ से २० २. उत्तरा. वृत्ति (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २२६