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________________ अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति स्वतंत्र भाव नहीं है, किन्तु मोक्षप्राप्ति में उपयोगी होने वाला ज्ञेयभाव है। तत्त्वों की उपयोगिता — प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'मोक्ष्मार्गगति' है, अतः इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय मोक्ष होने से मुमुक्षुओं के लिए जिन वस्तुओं का जानना आवश्यक है, उनका यहाँ तत्त्वरूप में वर्णन है । मोक्ष तो मुख्य साध्य है ही, इसलिए उसको तथा उसके कारणों को जाने बिना मोक्षमार्ग में मुमुक्षु की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार यदि मुमुक्षु मोक्ष के विरोधी (बन्ध और आश्रव) तत्त्वों का और उनके कारणों का स्वरूप न जाने तो भी वह अपने पथ (मोक्षपथ) में अस्खलित प्रवृत्ति नहीं कर सकता। मुमुक्ष को सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि मेरा शुद्ध स्वरूप क्या है? इस प्रकार ज्ञान की पूर्ति के लिए ९ तत्त्वों का कथन है। जीव तत्त्व के कथन का अर्थ है— मोक्ष का अधिकारी बतलाना। अजीव तत्त्व से यह सूचित किया गया है कि जगत् में एक ऐसा भी तत्त्व है, जो जड़ होने से मोक्षमार्ग के उपदेश का अधिकारी नहीं है । बन्धतत्त्व से मोक्ष के विरोध भाव (संसारमार्ग) का और आश्रव तथा पाप तत्त्व से उक्त विरोधी भाव (संसार) के कारण का निर्देश कियां गया है। संवर और निर्जरा तत्त्व से मोक्ष के कारणों को सूचित किया गया है। पुण्य कथंचित् हेय एवं कथंचित् उपादेय तत्त्व है, जो निर्जरा में परम्परा से सहायक बनता है । २ नौ तत्त्वों का संक्षिप्त लक्षण - जीव का लक्षण सुख, दुःख, ज्ञान और उपयोग है। अजीव इससे विपरीत धर्मास्तिकायादि हैं। पुण्य शुभप्रकृतिरूप सातादि कर्म है, पाप अशुभप्रकृतिरूप मिथ्यात्वादि कर्म है । आश्रव का लक्षण है— जिससे शुभाशुभ कर्म ग्रहण (आश्रवण) किये जाते हैं। अर्थात् कर्मबन्धन के हेतु — हिंसादि आश्रव हैं। संवर है— महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि द्वारा आश्रवों का निरोध करना । बन्ध है— आश्रवों ४४५ - द्वारा गृहीत कर्मों का आत्मा के साथ संयोग। कर्मों को भोग लेने से अथवा बारह प्रकार के तप करने से बंधे हुए कर्मों का देशत: क्षय करना निर्जरा है तथा बन्ध और आश्रवों द्वारा गृहीत कर्मों का आत्मा से पूर्णतया वियोग मोक्ष है, अथवा समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय होने से आत्मा का अपने शुद्ध रूप में प्रकट हो जाना मोक्ष है। जीव और अजीव, दो में ही समावेश क्यों नहीं? – वस्तुतः नौ तत्त्वों में दो ही तत्त्व मौलिक हैंजीवतत्त्व और अजीवतत्त्व । शेष तत्त्वों का इन्हीं दो में समावेश हो सकता है। जैसे कि पुण्य और पाप, दोनों कर्म हैं। बन्ध भी कर्मात्मक है और कर्म पुद्गल - परिणाम है। पुद्गल अजीव है। आश्रव मिथ्या दर्शनादिरूप परिणाम है और वह जीव का है। अत: आश्रव आत्मा (जीव) और पुद्गलों से अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ नहीं है । संवर आश्रवनिरोधरूप है, वह देशसंवर और सर्वसंवर के भेद से आत्मा का निवृत्तिरूप परिणाम है। निर्जरा कर्म का एकादेश से क्षय (परिशाटन) रूप है। जीव अपनी शक्ति से आत्मा से कर्मों का पार्थक्य-संपादन करता है । मोक्ष भी समस्त कर्मरहितरूप आत्मा (जीव) है। निष्कर्ष यह है कि अजीव और जीव इन दोनों में शेष तत्त्वों का समावेश हो जाता है, फिर नौ तत्त्वों का कथन क्यों किया गया? इसका समाधान यह है कि समान्यतया जीव और अजीव, ये दो ही तत्त्व हैं किन्तु विशेषतया, तथा मोक्षमार्ग में मुमुक्षु को प्रवृत्त करने के लिए ९ तत्त्वों का कथन किया गया है। नौ तत्त्वों के भेद-प्रभेद - नौ तत्त्वों के भेद - प्रभेद इस प्रकार है— जीव के भेद - जीव के मुख्य दो भेद हैं— सिद्ध और संसारी । संसारी जीवों के भी त्रस और स्थावर ये दो भेद हैं। स्थावर (एकेन्द्रिय) के दो १. (क) स्याद्वादमंजरी (ख) स्थानांग. स्था. ९ वृत्ति २. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी) अ. १, सू. ४, पृ. ६ ४. स्थानांगसूत्र, स्था. ९, वृत्ति (ग) तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी) पृ. ६, ३. स्थानांगसूत्र स्थान ९, वृत्ति
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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