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उत्तराध्ययनसूत्र
लोकान्त तक फैल जाते हैं। वक्ता का प्रयत्न मन्द होता है तो शब्द के पुद्गल अभिन्न होकर फैलते हैं, लेकिन वे असंख्य योजन तक पहुँच कर नष्ट हो जाते हैं ।
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अन्धकार और उद्योत — अन्धकार को जैनदर्शन ने प्रकाश का अभावरूप न मानकर प्रकाश (उद्योत ) की तरह पुद्गल का सद्रूप पर्याय माना है। वास्तव में अन्धकार पुद्गलद्रव्य है, क्योंकि उसमें गुण है। जो-जो गुणवान् होता है, वह - वह द्रव्य होता है, जैसे— प्रकाश। जैसे प्रकाश का भास्वर रूप और उष्ण स्पर्श प्रसिद्ध है, वैसे ही अन्धकार का कृष्ण रूप और शीत स्पर्श अनुभवसिद्ध है। निष्कर्ष यह है कि अन्धकार (अशुभ) पुद्गल का कार्य — लक्षण है, इसलिए वह पौद्गलिक है। पुद्गल का एक पर्याय है। २
छाया : स्वरूप और प्रकार - छाया भी पौद्गलिक है— पुद्गल का एक पर्याय है। प्रत्येक स्थूल पौद्गलिक पदार्थ चय-उपचय धर्म वाला है। पुद्गलरूप पदार्थ का चय-उपचय होने के साथ-साथ उसमें से तदाकार किरणें निकलती रहती हैं। वे ही किरणें योग्य निमित्त मिलने पर प्रतिबिम्बित होती हैं, उसे ही 'छाया' कहा जाता है। वह दो प्रकार की है— तद्वर्णादिविकार छाया (दर्पण आदि स्वच्छ पदार्थों में ज्यों की त्यों दिखाई देने वाली आकृति) और प्रतिबिम्ब छाया ( अन्य पदार्थों पर अस्पष्ट प्रतिबिम्ब मात्र पड़ना) । अतएव छाया भावरूप है, अभावरूप नहीं ।३
नौ तत्त्व और सम्यक्त्व का लक्षण
१४. जीवाजीवा य बन्धो य पुण्णं पावासवो तहा ।
संवरो निज्जरा मोक्खो सन्तेए तहिया नव ॥
[१४] जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये नौ तत्त्व हैं।
१५. तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं ।
भावेणं सद्दहंतज्स सम्मत्तं तं वियाहियं ॥
[१५] इन तथ्यस्वरूप भावों के सद्भाव (अस्तित्व) के निरूपण में जो भावपूर्वक श्रद्धा है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं ।
विवेचन-तत्व का स्वरूप — यथावस्थित वस्तुस्वरूप अथवा यथार्थरूप । इसे वर्तमान भाषा में तथ्य या सत्य कह सकते हैं। इन सत्यों (या तत्त्वों) के नौ प्रकार हैं, आत्मा के हित के लिए जिनमें से कुछ का जाना, कुछ का छोड़ना तथा कुछ का ग्रहण करना आवश्यक है। यहाँ तत्त्व शब्द का अर्थ अनादि-अनन्त और
१. (क) भगवती. १३/७ रूवी भंते ! भासा, अरूवी भासा ? गोयमा ! रूवी भासा, नो अरूपी भासा । (ख) 'शब्दान्धकारोद्योतप्रभाच्छायातपवर्णगन्धरसस्पर्शा एते पुद्गलपरिणामाः पुद्गललक्षणं वा ।'
(ग) स्थानांग स्था. २ / ३८१
(घ) भगवती. १३/७ भासिज्माणी भासा'
(ङ) प्रज्ञापना. पद ११
२. (क) न्यायकुमुदचन्द्र. पृ. ६६९ (ख) द्रव्यसंग्रह, गा. १६
३. प्रकाशावरणं शरीरादि यस्या निमित्तं भवति सा छाया ॥ १६ ॥
सा छाया द्वेधा व्यवतिष्ठते, तद्वर्णादिविकारात् प्रतिबिम्बमात्रग्रहणाच्च । आदर्शतलादिषु प्रसन्नद्रव्येषु मुखादिच्छाया तद्वर्णादिपरिणता उपलभ्यते, इतरत्र प्रतिबिम्बमात्रमेव ।
-नवतत्त्वप्रकरण
— राजवार्तिक ५/२४/१६-१७