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________________ अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति ४४३ काल के विभाग-काल के चार प्रकार हैं—(१) प्रमाणकाल-पदार्थ मापने का काल, (२-३) यथायुर्निवृत्तिकाल तथा मरणकाल-जीवन की स्थिति को यथायुर्निवृत्तिकाल एवं उसके अन्त' को मरणकाल कहते हैं । (४) अद्धाकाल—सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्धित काल । अनुयोगद्वारसूत्र में काल के अन्य विभागों का भी उल्लेख है। जीव का लक्षण और उपकार-एक शब्द में जीव का लक्षण 'उपयोग' है। उपयोग का अर्थ हैचेतना का व्यापार। चेतना के दो भेद हैं—ज्ञान और दर्शन, अर्थात्-उपयोग के दो रूप हैं-साकार और अनाकार । उपयोग ही जीव को अजीव से भिन्न (पृथक्) करने वाला गुण है। जिसमें उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन है, वह जीव है; जिसमें यह नहीं है, वह 'अजीव' है। आगे ११ वीं गाथा में जीव का विस्तृत लक्षण दिया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा वीर्य और उपयोग, ये जीव के लक्षण हैं । इन सबको हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-वीर्य और उपयोग। उपयोग में ज्ञान और दर्शन का तथा वीर्य में चारित्र और तप का समावेश हो जाता है। जीवों का उपकार है-परस्पर में एक दूसरे का उपग्रह करना।२ पुद्गल का लक्षण और उपकार-प्रस्तुत १२ वीं एवं १३ वीं गाथा में पुद्गल के १० लक्षण बताए हैं। इनमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, ये चार पुद्गल के गुण हैं और शेष ६ पुद्गलों के परिणाम या कार्य हैं । जैसेशब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया एवं आतप, ये ६ पुद्गल के परिणाम या कार्य हैं । लक्षण में दोनों ही आते हैं । गुण सदा साथ ही रहते हैं, परिणाम या कार्य निमित्त मिलने पर प्रकट होते हैं ।३ । __शब्द : व्याख्या—शब्द को जैनदर्शन ने पौद्गलिक, मूर्त और अनित्य माना है। स्थानांगसूत्र में— पुद्गलों के संघात और विघात तथा जीव के प्रयत्न से होने वाले पुद्गलों के ध्वनिपरिणाम को शब्द कहा गया है। पुद्गलों के संघात-विघात से होने वाली शब्दोत्पत्ति को वैस्रासिक और जीव के प्रयत्न से होने वाली को प्रायोगिक कहा जाता है। पहले काययोग द्वारा शब्द के योग्य अर्थात् भाषावर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण होता है और फिर वे पदगल शब्दरूप में परिणत होते हैं। तत्पश्चात् जब वे वक्ता के मुँह से वचनयोग-वाक्प्रयत्न द्वारा बोले जाते हैं, तभी उन्हें 'शब्दसंज्ञा' प्राप्त होती है। अर्थात् वचनयोग द्वारा जब तक उनका विसर्जन नहीं हो जाता, तब तक उन्हें शब्द नहीं कहा जाता । शब्द जीव के द्वारा भी होता है, अजीव के द्वारा भी। जीवशब्द साक्षर और निरक्षर दोनों प्रकार का होता है, अजीवशब्द अनक्षरात्मक होता है। तीसरा मिश्रशब्द जीव-अजीव दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है। वक्ता का प्रयत्न तीव्र होता है तो शब्द के भाषापुद्गल बिखरकर फैलने लगते हैं। वे भिन्न होकर इतने सूक्ष्म हो जाते हैं कि अपने समकक्ष अन्यान्य अनन्त परमाणु-स्कन्धों को भाषा के रूप में परिणत करके १ (क) 'वत्तणालक्खणो कालो।' –उत्तरा. २८/९ (ख) वर्तना परिणाम: क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य। -तत्त्वार्थ-५/२२ (ग) 'समयाति वा, आवलियाति वा, जीवाति वा अजीवाति वा पवुच्चति ।' –स्थानांग २/४/९५ (घ) लोगागामपदेसे, एक्केक्के जे ठिया हु एक्केक्का।रयणाणं रासीइव, ते कालाणू असंखदव्वाणि।द्रव्यसंग्रह २२ (ङ) अनुयोगद्वारसूत्र १३४-१४० (क) जीवो उवओगलक्खणो। उत्तरा. २८/१० (ख) परस्परोपग्रहो जीवानाम्।–तत्त्वार्थ.५/२१ ३. (क) उत्तरा. २८/१२ (ख) स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः-पुद्गलाः। शब्द-बन्ध-सौक्ष्म्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च । -तत्त्वार्थ. ५/२२/२४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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