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________________ ४४० उत्तराध्ययनसूत्र ११. नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एवं जीवस्स लक्खणं॥ [११] ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग, ये जीव के लक्षण हैं। १२. सद्दऽन्धयार-उज्जोओ पहा छायाऽऽतवे इ वा। वण्ण-रस-गन्ध-फासा पुग्गलाणं तु लक्खणं॥ [१३] शब्द अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया और आतप तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, ये पुद्गल के लक्षण हैं। १३. एगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाणमेव य। संजोगा य विभागा य पजवाणं तु लक्खणं॥ [१२] एकत्व, पृथक्त्व (विनत्व), संख्या, संस्थान (आकार), संयोग और विभाग—ये पर्यायों के लक्षण हैं। विवेचन-द्रव्य का लक्षण–विभिन्न दर्शनों ने द्रव्य का लक्षण अपनी-अपनी दृष्टि से भिन्न-भिन्न मान्य किया है। जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य वह है जो गुणों (रूप आदि) का आश्रय (अनन्त गुणों का पिण्ड) है। उत्तरवर्ती जैनदार्शनिकों ने गुण और पर्याय में भेदविवक्षा करके द्रव्य का लक्षण किया-"जो गुणपर्यायवान् है, वह द्रव्य है।" इसके अतिरिक्त जैनदर्शन के ग्रन्थों में द्रव्यशब्द का प्रयोग विभिन्न शब्दों में हुआ है यथाउत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त हो, वह सत् है, जो सत् है, वह 'द्रव्य' है। विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है जिसमें पूर्वपर्याय का विनाश और उत्तरपर्याय का उत्पाद हो, वह द्रव्य है। गुण का लक्षण–गुण का लक्षण भी विभिन्न दार्शनिकों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से किया है। जैनदर्शन का आगमकालीन लक्षण प्रस्तुत गाथा (६) में दिया है-"जो किसी द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण होते हैं।" उत्तरवर्ती जैनदार्शनिकों ने लक्षण किया-'जो द्रव्य के आश्रय में रहते हों तथा स्वयं निर्गुण हों, वे गुण हैं ।' अर्थात्-द्रव्य के आश्रय में रहने वाला वही गुण 'गुण'२ है जिसमें दूसरे गुणों का सद्भाव न हो, अथवा जो निर्गुण हो। वास्तव में गुण द्रव्य में ही रहते हैं। पर्याय का लक्षण-जो द्रव्य और गुण, दोनों के आश्रित रहता है, वह पर्याय है। नयप्रदीप एवं न्यायालोक में पर्याय का लक्षण कहा गया है जो उत्पन, विनष्ट होता है तथा समग्र द्रव्य को व्याप्त करता है, वह पर्याय है। बृहवृत्तिकार कहते हैं—जो समस्त द्रव्यों और समस्त गुणों में व्याप्त होते हैं, वे पर्यव या पर्याय कहलाते हैं। १. (क) गुणाणमासओ दव्वं। –उत्तरा. अ. २८, गा.६ (ख) 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्।' – तत्त्वार्थ. ५/३७ (ग) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्, सद्रव्यलक्षणम्-तत्वार्थ. ५/२९ (घ) विशेषावश्यकभाष्य, गा. २८ २. (क) एगदव्वस्सिया गुणा।-उत्तरा. अ. २८,गा.६ (ख)'द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः।'-तत्त्वार्थ ५/४० ३. (क) लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे। -उत्तरा २८/६ (ख) पर्येति उत्पत्तिं विपत्तिं चाप्नोति पर्यवति वा व्याप्नोति समस्तमपि द्रव्यमिति पर्यायः पर्यवो वा। -न्यायालोक तत्त्वप्रभावृत्ति, पत्र २०३ (ग) पर्येति उत्पादमुत्पत्तिं विपत्तिं च प्राप्नोतीति पर्यायः। -नयप्रदीप, पत्र ९९ (घ) परि सर्वतः-द्रव्येष गुणेषु सर्वेष्ववन्ति-गच्छन्तीति पर्यावाः। -बृहद्वृत्ति, पत्र ५५७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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