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अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति
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1. समीक्षा - प्राचीन युग में द्रव्य और पर्याय, ये दो शब्द ही प्रचलित थे। 'गुण' शब्द दार्शनिक युग में 'पर्याय' से कुछ भिन्न अर्थ में प्रयुक्त हुआ जान पड़ता है। कई आगम ग्रन्थों में 'गुण' को पर्याय का ही एक भेद माना गया है, इसलिए कतिपय उत्तरवर्ती दार्शनिक विद्वानों ने गुण और पर्याय की अभिन्नता का समर्थन किया है। जो भी हो, उत्तराध्ययन में गुण का लक्षण पर्याय से पृथक् किया है । द्रव्य के दो प्रकार के धर्म होते हैंगुण और पर्याय। इसी दृष्टि से दोनों का अर्थ किया गया— सहभावी गुणः, क्रमभावी पर्यायः । अर्थात् द्रव्य का जो सहभावी अर्थात् नित्य रूप से रहने वाला धर्म है, वह गुण है, और जो क्रमभावी धर्म है, वह पर्याय है। निष्कर्ष यह है कि 'गुण' द्रव्य का व्ययच्छेदक धर्म बन कर उसकी अन्य द्रव्यों से पृथक् सत्ता सिद्ध करता है। गुण द्रव्य में कथंचित् तादात्म्यसम्बन्ध से रहते हैं, जब कि पर्याय द्रव्य और गुण, दोनों में रहते हैं । यथा आत्मा द्रव्य है, ज्ञान उसका गुण है, मनुष्यत्व आदि आत्मद्रव्य के पर्याय हैं और मतिज्ञानादि ज्ञानगुण के पर्याय हैं।
गुण प्रकार का होता है— सामान्य और विशेष । प्रत्येक द्रव्य में सामान्य गुण हैं— अस्तित्व, वस्तुद्रव्य, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशवत्व और अगुरुलघुत्व आदि ।
विशेष गुण हैं- (१) गतिहेतुत्व, (२) स्थितिहेतुत्व, (३) अवगाहहेतुत्व, (४) वर्त्तनाहेतुत्व, (५) स्पर्श, (६) रस, (७) गन्ध, (८) वर्ण, (९) ज्ञान, (१०) दर्शन, (११) सुख, (१२) वीर्य, (१३) चेतनत्व, (१४) अचेतनत्व, (१५) मूर्त्तत्व और (१६) अमूर्त्तत्व आदि ।
द्रव्य ६ हैं — धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय । इन छहों द्रव्यों में द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, वस्तुत्व, अस्तित्व आदि सामान्यधर्म (गुण) समानरूप से पाये जाते हैं। असाधारणधर्म - इन छह द्रव्यों में से प्रत्येक का एक-एक विशेष (व्यवच्छेक) धर्म भी है, जो उसी में ही पाया जाता है। जैसे—धर्मास्तिकाय का गतिसहायकत्व, अधर्मास्तिकाय का स्थिति- सहायकत्व, आकाशास्तिकाय का अवकाश (अवगाह) - दायकत्व, आदि । १
पर्याय का विशिष्ट अर्थ और विविध प्रकार — पर्याय का विशिष्ट अर्थ परिवर्तन भी होता है, जो जीव में भी होता है और अजीव में भी। इस प्रकार पर्याय दो रूप हैं— जीवपर्याय और अजीवपर्याय। फिर परिवर्तन स्वाभाविक भी होते हैं, वैभाविक (नैमित्तिक) भी । इस आधार पर दो रूप बनते हैं— स्वाभाविक और वैभाविक । अगुरुलघुत्व आदि पर्याय स्वाभाविक हैं और मनुष्यत्व, देवत्व, नारकत्व आदि वैभाविक पर्याय हैं। १. (क) प्रमाणनयतत्त्वालोक रत्नाकरावतारिका, ५ / ७-८ (ख) पंचास्तिकाय ता. वृत्ति १६ / ३५/१२
(ग) श्लोकवार्तिक ४/१/३३/६०
(क) अत्थित्तं वत्थुत्तं दव्वत्तं पमेयत्तं अगुरुलहुत्तं । देसत्तं चेदणितरं मुत्तममुत्तं वियाणेह ॥
एक्क्का अट्ठट्ठा सामण्णा हुंति सव्वदव्वाणं ॥ (ख) सव्वेसिं सामण्णा दह भणिया सोलस विसेसा ॥ ११ ॥
२.
- बृहद्नयचक्र गा. ११ से १२, १५
गाणं दंसण सुहसत्ति रूपरसगंधफास-गमण-ठिदी ॥
-गाहणमुत्तममुत्तं खलु चेदणिदरं च ॥ १३ ॥
छवि जीवपोग्गलाणं इयराण वि सेस तितिभेदा ॥ १५ ॥ - बृहद्नयचक्र, गा. ११, १३, १५
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(ग) “ अवगाहनाहेतुत्वं, गतिनिमित्तता, स्थितिकारणत्वं वर्त्तनायतनत्वं, रूपादिमत्ता, चेतनत्वमित्यादयो विशेषगुणाः । "
- प्रवचनसार ता. वृत्ति, ९५