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________________ ४३८ उत्तराध्ययनसूत्र से मोक्षमार्ग बताया है, उनके निषेध के लिए यहाँ तथ्य और जिनभाषित दो विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं। मोक्ष का फलितार्थ- —बन्ध और बन्ध के कारणों के अभाव से तथा पूर्वबद्ध कर्मों के क्षय से होने वाला परिपूर्ण आत्मिक विकास मोक्ष है, अर्थात्[— ज्ञान और वीतरागभाव की पराकाष्ठा ही मोक्ष है । सम्यग्ज्ञानादि का स्वरूप — नय और प्रमाण से होने वाला जीवादि पदार्थों का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है । जिस गुण अर्थात् शक्ति के विकास से तत्त्व (सत्य) की प्रतीति हो, जिसमें हेय, ज्ञेय और उपादेय के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो, वह सम्यग्दर्शन है। सम्यग्ज्ञानपूर्वक काषायिक भाव यानी राग-द्वेष और योग की निवृत्ति से होने वाला स्वरूपरमण सम्यक् चारित्र है । ज्ञान और उसके प्रकार ४. तत्थ पंचविहं नाणं सुयं आभिनिबोहियं । ओहिनाणं तइयं मणनाणं च केवलं ॥ [४] उक्त चारों में से ज्ञान पांच प्रकार का है— श्रुतज्ञान, आभिनिबोधिक ( मतिज्ञान) तीसरा अवधिज्ञान एवं मनोज्ञान (मन: पर्यायज्ञान) और केवलज्ञान । ५. एयं पंचविहं नाणं दव्वाण य गुणाय य । पज्जवाणं च सव्वेसिं नाणं नाणीहि देसियं ॥ [५] ज्ञानी पुरुषों ने बताया है कि यह पांच प्रकार का ज्ञान सर्व द्रव्यों, गुणों और पर्यायों का अवबोधक—जानने वाला है। विवेचन—पांच ज्ञानों के क्रम में अन्तर — नन्दीसूत्र आदि में मतिज्ञान को प्रथम और श्रुतज्ञान को दूसरा कहा गया है, किन्तु यहाँ श्रुतज्ञान को प्रथम और मतिज्ञान को बाद में कहा है। उसका कारण वृत्तिकार ने यह बताया है कि शेष सभी ज्ञानों के स्वरूप का ज्ञान प्रायः श्रुतज्ञान से ही हो सकता है, इसलिए श्रुतज्ञान की मुख्यता बताने के लिए इसे प्रथम कहा है । मति और श्रुत दोनों ज्ञान अन्योन्याश्रित हैं। अथवा मति और श्रुत लब्धि की अपेक्षा साथ ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए इन में पहले पीछे का प्रश्न ही नहीं उठता। मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द - अनुयोगद्वार में 'आभिनिबोधिक' शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु नन्दीसूत्र में ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा को इसका पर्यायवाची माना गया है । तत्त्वार्थसूत्र में भी मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध एकार्थक बताया गया है। वस्तुतः ईहा आदि मतिज्ञान में ही गर्भित हैं । ४ १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५५६ : इह च चारित्रभेदत्वेऽपि तपसः पृथगुपादानमस्यैव कर्मक्षपणं प्रत्यसाधारणहेतुत्वमुपदर्शयितुम् । तथा च वक्ष्यति — तवसा "विसुज्झइ ।" (ख) तत्त्वार्थसूत्र—१ / १ २. तत्त्वार्थसूत्र—बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यम् । - तत्त्वार्थ. १०/२, १/१ पं. सुखलालजीकृत विवेचन - पृ १-२ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५५७ ४. (क) ईहापोहपीमंसा, मग्गणा य गवेसणा । सन्ना सई मई पन्ना सव्वं आभिणिबोहियं ॥ नन्दीसूत्र गा. ७७ (ख) मतिःस्मृति: संज्ञा चिन्ता अभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । - तत्त्वार्थसूत्र १ / १३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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