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________________ ४२४ उत्तराध्ययनसूत्र लगता है। इसलिए जीवनधारण के लिए आहार करना आवश्यक है। छठा कारण धर्मचिन्ता है। इसका तात्पर्य यह है कि क्षुधादि से दुर्बल हुए व्यक्ति को दुर्ध्यान होना सम्भव है, उससे धर्मघ्यान नहीं हो सकता। भक्तपान-गवेषणा-निषेध के ६ कारण-(१) आतंक-ज्वर आदि रोग होने पर, (२) उपसर्ग आने पर अर्थात्-देव, मनुष्य अथवा तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्ग आया हो तब अथवा व्रतभंग करने के लिए स्वजनादि के द्वारा किये गये उपसर्ग के समय, (३) ब्रह्मचर्य की गुप्तियों की रक्षा के लिए, अर्थात् आहार करने से मन में विकार उत्पन्न होता हो तो आहार का त्याग किये विना ब्रह्मचर्य-पालन नहीं हो सकता, (४) प्राणियों की दया के लिए अर्थात् वर्षा आदि ऋतुओं में अप्काय आदि के जीवों की रक्षा के लिए आहारत्याग करना आवश्यक है, (५) उपवास आदि तपस्या के समय आहारत्याग आवश्यक है, (६) शरीर का व्युत्सर्ग करने हेतु-आयुष्य की समाप्ति पर शरीर का त्याग करने हेतु उचित समय पर अनशन करते समय। इन ६ कारणों से आहार नहीं करना चाहिए। अर्थात् ६ कारणों से भक्त-पान की गवेषणा नहीं करनी चाहिए।२ ___विहारं विहरए—व्यवहारभाष्य की वृत्ति में 'विहारभूमि' का अर्थ किया गया है—'भिक्षा-भूमि' इसीलिए प्रस्तुत प्रसंग में 'विहारं विहरए' का अर्थ किया गया है- भिक्षा के निमित्त पर्यटन करे। बृहद्वृत्ति में विहार का अर्थ-प्रदेश (क्षेत्र) किया है, क्योंकि उसका सम्बन्ध अर्द्धयोजन ( दो कोस) तक आहारपानी की गवेषणा के लिए पर्यटन के साथ जोड़ा गया है। भिक्षाभूमि में जाते समय सोपकरण जाए या निरुपकरण ? -ओघनियुक्ति में इस सम्बन्ध में यह मत व्यक्त किया गया है कि मुनि सभी उपकरणों को साथ में लेकर भिक्षा-गवेषणा करे, यह उत्सर्गविधि है। यदि वह सभी उपकरणों को साथ ले जाने में असमर्थ हो तो आचारभण्डक को साथ लेकर जाए, यह अपवादविधि है। आचारभण्डक में निनोक्त ६ उपकरण आते हैं-(१) पात्र, (२) पटल (पल्ला), (३) रजोहरण, (४) दण्डक, (५) कल्पद्वय अर्थात् एक ऊनी और एक सूती चादर और (६) मात्रक (पेशाब आदि के लिए भाजन)। शान्त्याचार्य ने 'अवशेष' का अर्थ समस्त पात्रनिर्योग (पात्र से सम्बन्धित समस्त –(उपकरण) किया है। विकल्प रूप से समस्त भाण्डक-उपकरण अर्थ किया है। १. (क) स्थानांग. वृत्ति ६/५०० (ख) बृहवृत्ति पत्र ५४३ (ग) वेयणवेयावच्चे किरयाठाणे य संजमट्ठाए । तवपाणधम्मचिंता कुज्जा एवेहिं आहारं॥- मूलाचार ६/६० वृत्ति (घ) नत्थिं छुहाए सरिसया, वेयण भंजेज तप्प-समणट्ठा। छाओ वेयावच्चं न तरइ काउं अओ भुंजे॥ इरियं नवि सोहेइ पेहाईयं च संजमं काउं॥ थामो वा परिहायइ, गुणणुप्पेहायसु य असत्तो॥ - ओघनियुक्ति भाष्य, गाथा २९०-२९१ (ङ) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २१५ २. (क) स्थानांग. स्थान ६/५०० वृत्ति (ख) ओघनियुक्तिभाष्य, गाथा २९३-२९४ (ग) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. २, पत्र २१५ ३. (क) यत्र च महती विहारभूमिर्भिक्षानिमित्तं परिभ्रमणभूमिः ......... -व्यवहारभाष्य ४/४० वृत्ति (ख) विहरत्यस्मिन् प्रदेश इति विहारस्तम्। -बृहवृत्ति, पत्र ५४४ ४. (क) ओघनियुक्तिभाष्य गाथा २२७, वृत्तिसहित (ख) बृहवृत्ति, पत्र ५४४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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