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________________ छव्वीसवाँ अध्ययन : सामाचारी ४२३ [३२] छह कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर तृतीय पौरुषी (तीसरे पहर) में भक्त-पान की गवेषणा करे । ३३. वेयण - वेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छट्टं पुण धम्मचिन्ताए । । [३३] (क्षुधा-) वेदना (की शान्ति) के लिए, वैयावृत्य के लिए, ईर्या (समिति के पालन) के लिए, संयम के लिए तथा प्राण धारण (रक्षण) करने के लिए और छठे धर्मचिन्तन (-रूप कारण) के लिए भक्त - पान की गवेषणा करे । ३४. निग्गन्थो धिइमन्तो निग्गन्थी वि न करेज्ज छहिं चेव । ठाणेहिं उ इमेहिं अणइक्कमणा य से होइ ।। [३४] धृतिमान् (धैर्यसम्पन्न ) निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थी ( साध्वी ) इन छह कारणों से भक्तपान की गवेषणा न करे जिससे संयम का अतिक्रमण न हो । ३५. आयंके उवसग्गे तितिक्खया बम्भचेरगुत्तीसु । पाणिदया तवहेउं सरीर - वोच्छेयणट्ठाए । । [३५] आतंक (रोग) होने पर, उपसर्ग आने पर, तितिक्षा के लिए, ब्रह्मचर्य की गुप्तियों की रक्षा के लिए प्राणियों की दया के लिए, तप के लिए तथा शरीर-विच्छेद (व्युत्सर्ग) के लिए मुनि भक्त - पान की गवेषणा न करे । ३६. अवसेसं भण्डगं गिज्झा चक्खुसा पडिलेहए । परमद्धजोयणाओ विहारं विहरए मुणी || [३६] समस्त उपकरणों का आँखों से प्रतिलेखन करे और उनको लेकर (आवश्यक हो तो) मुनि उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) आधे योजन (दो कोस) क्षेत्र (विहार) तक विचरण करे (अर्थात् भक्त - पान की गवेषणा के लिए पर्यटन करे) । विवेचन — भक्तपान की गवेषणा के कारण— स्थानांगसूत्र और मूलाचार में भी छह कारणों से आहार करने का विधान है, जो कि भक्त - पान - गवेषणा का फलितार्थ है । मूलाचार में 'इरियट्ठाए' के बदले 'किरियट्ठाए' पाठ है । वहाँ उसका अर्थ किया गया है - षड् आवश्यक आदि क्रियाओं का पालन करने के लिए। छह कारणों की मीमांसा करते हुए ओघनिर्युक्ति में कहा गया कि प्रथम कारण इसलिए बताया है कि क्षुधा के समान कोई शरीरवेदना नहीं है, क्योंकि क्षुधा से पीड़ित व्यक्ति वैयावृत्य नहीं कर सकता, क्षुधापीड़ित व्यक्ति आँखों के आगे अंधेरा आ जाने के कारण ईर्या का शोधन नहीं कर सकता, आहारादि ग्रहण किये बिना कच्छ और महाकच्छ आदि की तरह वह प्रेक्षा आदि संयमों का पालन नहीं कर सकता । आहार किये बिना उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है। इससे वह गुणन (चिन्तन) और अनुप्रेक्षण करने में अशक्त हो जाता है। प्राणवृत्ति अर्थात् प्राणरक्षण (जीवनधारण ) के लिए आहार ग्रहण करना आवश्यक है। प्राण का त्याग तभी किया जाना युक्त है, जब आयुष्य पूर्ण होने का कोई कारण उपस्थित हो, अन्यथा आत्महत्या का दोष
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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