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छव्वीसवाँ अध्ययन : सामाचारी
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गोच्छग का और (३) फिर अंगुलियों से गोच्छग पकड़ कर पटल आदि पात्र सम्बन्धी वस्त्रों का प्रतिलेखन करना।
___ वस्त्रप्रतिलेखनाविधि-(१) उड्ढं-उकडू आसन से बैठकर वस्त्रों को भूमि से ऊँचा रखते हुए प्रतिलेखन करना, (२) थिरं-वस्त्र को दृढ़ता से स्थिर (पकड़े) रखना, (३) अतुरियं-उपयोगशून्य होकर जल्दी-जल्दी प्रतिलेखना न करना, (४) पडिलेहे -वस्त्र के तीन भाग करके उसे दोनों ओर से अच्छी तरह देखना, (५) पप्फोड़े-देखने के बाद उसे यतना से धीरे-धीरे झड़काना चाहिए और (६) पमजिजा-झड़काने के बाद वस्त्र आदि पर लगे हुए जीव को यतना से प्रमार्जन कर हाथ में लेना और एकान्त में यतना से परठना चाहिए। प्रस्तुत गाथा में इन ६ को मुख्य तीन अंगों में विभक्त कर दिया है - (१) प्रतिलेखना-वस्त्रों का आँखों से निरीक्षण करना, (२) प्रस्फोटना—(झड़काना) और (३) प्रमार्जना (गोच्छग से पूँजना)२
अप्रमाद-प्रतिलेखना-२५वीं गाथा में वस्त्रप्रतिलेखना में सावधानी रखने के अनर्तित आदि ६ प्रकार बतलाए गए हैं,उन्हें स्थानांगसूत्र में अप्रमाद-प्रतिलेखना के प्रकार बताए गए हैं। उन ६ का लक्षण इस प्रकार है -(१) अनर्तित-प्रतिलेखना करते समय शरीर और वस्त्र को इधर-उधर नचाए नहीं, (२) अवलित
-प्रतिलेखना करते समय वस्त्र कहीं से मुड़ा हुआ न हो, प्रतिलेखना करने वाले को भी अपने शरीर को बिना मोड़े सीधे बैठना चाहिए। अथवा प्रतिलेखना करते समय वस्त्र या शरीर को चंचल नहीं रखना चाहिए। (३) अननुबन्धी–प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को दृष्टि से अलक्षित (ओझल) न करे या वस्त्र को अयतना से न झटकाए । (४) अमोसली-धान्यादि कूटते समय ऊपर, नीचे और तिरछे लगने वाले मूसल की तरह प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे या तिरछे दीवार आदि से नहीं लगाना चाहिए। (५) षट्पुरिम-नवस्फोट का (६ पुरिमा, ९ खोड़ा) -प्रतिलेखना में ६ पुरिम और ९ खोड़ करने चाहिए। षट्पुरिम का रूढ़ अर्थ है -वस्त्र के दोनों ओर के तीन-तीन हिस्से करके उन्हें (दोनों हिस्सो को) तीनतीन बार खंखेरना, झड़काना और नव खोड़ का अर्थ है -स्फोटक अर्थात् प्रमार्जन। वस्त्र के प्रत्येक भाग के ९ खोटक करके दोनों भागों (१८ खोटकों) को तीन-तीन बार पूंजना। फिर उनका तीन बार शोधन करना और (६) पाणि-प्राण-विशोधन-वस्त्र आदि पर कोई जीव दिखाई दे तो उसका यतनापूर्वक अपने हाथ से शोधन करना चाहिए। यहाँ १ दृष्टिप्रतिलेखन, ६ पूर्व (झटकाना) और १८ बार खोटक (प्रमार्जन) करना, यों प्रतिलेखना के कुल १+६+१८-२५ प्रकार होते हैं।
प्रमाद-प्रतिलेखना-२६वीं गाथा में आरभटा आदि प्रतिलेखना के दोष बताए हैं जो स्थानांगसत्र के अनुसार प्रमाद-प्रतिलेखना के प्रकार हैं-(१) आरभटा-निर्दिष्ट विधि से विपरीत रीति से या शीघ्रता प्रतिलखेना करना अथवा एक वस्त्र की प्रतिलेखना अधूरी छोड़कर दूसरे वस्त्र की प्रतिलेखना में लग जाना, (२) सम्मर्दा -जिस प्रतिलेखना में वस्त्र के कोने मुड़े ही रहे, उनमें सलवटें पड़ी हों, अथवा प्रतिख्यमान वस्त्रादि पर बैठकर प्रतिलेखना करना, (३) मोसली-जैसे धान्य कूटते समय मूसल ऊपर,
१. (क) उत्तरा. मूलपाठ अ. २६, गा. २३ (ख) पत्तं पत्ताबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया।
पडलाइं रयत्ताणं च, गोच्छओ पायनिज्जोगो॥ -ओघनियुक्ति, गा.६७४ २. (क) उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४०-५४२ (ख) स्थानांग, स्थान ६/५०३ ३. (क) उत्तरा. बृहद्वृत्ति,पत्र ५.४२
(ख) स्थानांग, स्थान ६/५०३