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उत्तराध्ययनसूत्र
२९. पडिलेहणं कुणन्तो मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा।
देइ व पच्चक्खाणं वाएइ (संय/पडिच्छइ वा॥ [२९] प्रतिलेखन करते समय जो परस्पर वार्तालाप करता है, जनपद की कथा करता है, अथवा प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को वाचना देता (पढ़ाता) है या स्वयं अध्ययन करता (पढ़ता) है
३०. पुढवीआउक्काए तेऊवाऊवणस्सइतसाण।
पडिलेहणापमत्तो छण्हं पि विराहओ होइ।। [३०] वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय; इन षटकायिक जीवों का विराधक होता है।
३१. पुढवी-आउक्काए तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं।
पडिलेहणआउत्तो छण्हं आराहओ होइ॥ [३१] प्रतिलेखना में उपयोग-युक्त (अप्रमत्त) मुनि पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय; इन षट्कायिक जीवों का आराधक (रक्षक) होता है।
विवेचनप्रतिलेखन : स्वरूप, विधि, दोष एवं परिणाम —प्रतिलेखन जैन मुनि की चर्या का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका दायरा बहुत व्यापक है। साधु को केवल वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि भण्डोपकरणों की ही नहीं, अपने निश्रित जो भी मकान, पट्टे, चौकी, पुस्तकें, शरीर आदि हो, उनका भी प्रतिलेखन करना आवश्यक है। साथ ही क्षेत्रप्रतिलेखन अर्थात् —परिष्ठापनस्थान (स्थण्डिल), आवासस्थान --उपाश्रय, धर्मस्थान आदि स्वाध्याय (विचार) भूमि, विहारभूमि आदि का भी प्रतिलेखन आवश्यक है। कालप्रतिलेखन (स्वाध्यायकाल, भिक्षाचरीकाल, प्रतिलेखनकाल, निद्राकाल, ध्यानकाल आदि का भलीभांति विचार करके प्रत्येक कार्य यथासमय करना) भी अनिवार्य है और भावप्रतिलेखन (अपने मन में उठने वाले शुभाशुभ भावों का सम्प्रेक्षण करना) भी शास्त्रविहित है। प्रतिलेखन के साथ प्रमार्जन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रस्तुत अध्ययन की पूर्व गाथाओं में क्षेत्रप्रतिलेखन और कालप्रतिलेखन के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा चुका है। द्रव्यप्रतिलेखन के सन्दर्भ में पात्र आदि उपकरणों के प्रतिलेखन के विषय में भी कहा जा चुका है। अब यहां गाथा २३ से ३१ तक मुख्यतया वस्त्रप्रतिलेखन से सम्बन्धित विधि-निषेध का निरूपण किया गया है। ओघनियुक्ति के अनुसार विचार करने पर गा. २३ पात्रप्रतिलेखन से सम्बन्धित प्रतीत होती है। प्रस्तुत गाथा में पात्र से सम्बन्धित तीन उपकरणों (मुखवस्त्रिका, गोच्छग और वस्त्र (पटल-पल्ला आदि) का उल्लेख है, जबकि ओघनियुक्ति में पात्र से सम्बन्धित सात उपकरणों (पात्रनिर्योग-पात्रपरिकर) का निर्देश है -(१) पात्र, (२) पात्रबन्ध (पात्र को बांधने का वस्त्र), (३) पात्रस्थापन (पात्र को रज आदि से बचाने का उपकरण), (४) पात्रकेसरिका (पात्र की मुखवस्त्रिका), (५) पटल (पात्र को ढांकने का पल्ला), (६) रजस्त्राण (चूहों, जीवजन्तुओं, रज या वर्षा के जल कण से बचाव के लिए उपकरण) और (७) गोच्छग (पटलों का प्रमार्जन करने की ऊन की प्रमार्जनिका)। पात्र सम्बन्धी इन मुख्य तीन उपकरणों के प्रतिलेखन का क्रम इस प्रकार बताया गया है -(१) प्रथम मुखवस्त्रिका (पात्रकेसरिका) का, (२) तत्पश्चात् १. (क) 'कालं पडिलेडित्ता .......'-अ. २६, गा. २० (ख) भायणं पडिलेहए'-अ. २६, गा. २२
(ग) 'वत्थाई पडिलेहए'-अ. २६, गा. २३ (घ) 'संपिक्खए अप्पगमप्पएण-दशवै., अ. १०