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छव्वीसवाँ अध्ययन : सामाचारी
प्रतिलेखना करे । इसका आशय यह है कि चतुर्थ पौरुषी में फिर स्वाध्याय करना है । प्रतिलेखना का विधि-निषेध
२३. मुहपोत्तियं पडिलेहित्ता पडिलेहिज्ज गोच्छगं । गोच्छगलइयंगुलिओ वत्थाई पडिलेहए ||
[२३] मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन कर गोच्छग (प्रमार्जनी - पूंजणी) का प्रतिलेखन करे । अंगुलियों से गोच्छग को पकड़ कर वस्त्रों का प्रतिलेखन करे ।
२४. उड्ढं थिरं अतुरियं पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे । तो बिइयं पप्फोडे तइयं च पुणो पमज्जेज्जा ।।
[२४] (सर्वप्रथम) ऊर्ध्व (उकडू) आसन से बैठे तथा वस्त्र को ऊँचा (अर्थात् — तिरछा ) और स्थिर रखे और शीघ्रता किये विना उसका प्रतिलेखन (नेत्र से अवलोकन) करे। दूसरे में वस्त्र को धीरे से झटकारे और तीसरे में फिर वस्त्र का प्रमार्जन करे ।
२५. अणच्चाविंय अवलियं अणाणुबन्धिं अमोसलिं चेव । छप्पुरमा नव खोडा पाणीपाणविसोहणं ॥
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[२५] प्रतिलेखना विधि - ( प्रतिलेखन के समय वस्त्र या शरीर को ) (१) न नचाए, (२) न मोड़े, (३) वस्त्र को दृष्टि से अलक्षित विभाग न करे, (४) वस्त्र का दीवार आदि से स्पर्श न होने दे (५) वस्त्र के ६ पूर्व और ९ खोटक करे, (६) कोई प्राणी हो, उसका विशोधन करे ।
२६. आरभडा सम्मद्दा वज्जेयव्वा य मोसली तइया । पप्फोडणा चउत्थी विक्खित्ता वेड्या छट्ठा ।।
२७. पसिढिल-पलम्ब-लोला एगामोसा अणेगरूवधुणा । कुणइ पमाणि पमायं संकिए गणणोवगं कुज्जा ।।
[२६-२७] (प्रतिलेखन के ६ दोष इस प्रकार हैं -) (१) आरभटा (२) सम्मर्दा (३) मोसली (४) प्रस्फोटना (५) विक्षिप्ता (६) वेदिका (७) प्रशिथिल (८) प्रलम्ब (९) लोल (१०) एकामर्शा (११) अनेक रूप धूनना (१२) प्रमाणप्रमाद (१३) गणनोपगणना दोष ।
२८.
अणूणाइरित्तपडिलेहा अविवच्चासा तहेव य ।
पढमं पयं पत्थं सेसाणि उ अप्पसत्थाई ॥ |
[२८] (प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण से अन्यून, अनतिरिक्त तथा अविपरीत प्रतिलेखना ही शुद्ध होती है। उक्त तीन विकल्पों के ८ विकल्प होते हैं। उनमें प्रथम विकल्प (-भेद ) ही शुद्ध (प्रशस्त) है, शेष अशुद्ध (अप्रशस्त ) हैं ।
१. अप्रतिक्रम्य कालस्य, तत्प्रतिक्रमार्थं कायोत्सर्गमविधायैव, चतुर्थपौरुष्यामपि स्वाध्यायस्य विधास्यमानत्वात् ।
—बृहद्वृत्ति, पत्र ५४०