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________________ ४१८ उत्तराध्ययनसूत्र [२०] वही नक्षत्र • जब आकाश के अन्तिम चतुर्थ भाग आ जाता है (अर्थात् रात्रि का अन्तिम चौथा प्रहर आ जाता है, तब उसे वैरात्रिक काल समझ कर मुनि स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाए ।) विवेचन - रात्रि के चार भाग- ( १ ) प्रदोषिक (रात्रि का मुख भाग), (२) अर्धरात्रिक, (३) वैरात्रिक और (४) प्राभातिक । प्रादोषिक और प्राभातिक इन दो प्रहरों में स्वाध्याय किया जाता है। अर्धरात्रि में ध्यान और वैरात्रिक में शयनक्रिया ( निद्रा - ग्रहण) । प्रस्तुत दो गाथाओं ( १८ - १९) में मुनि की रात्रि की दिनचर्या की विधि बताई गई है । दशवैकालिकसूत्र में निर्दिष्ट — 'कालं कालं समायरे ' - 'सब कार्य ठीक समय पर करे' मुनि की चर्या का प्रमुख प्रेरणासूत्र है । 'नक्खत्त तम्मि नहचउब्भाए संपत्ते' – जो नक्षत्र चन्द्रमा को रात्रि के अन्त तक पहुँचाता है, वह जब आकाश के चतुर्थ भाग में आता है, उस समय प्रथम पौरुषी का कालमान होता है। इसी प्रकार वह नक्षत्र जब समग्र क्षेत्र का अवगाहन कर लेता है, तब रात्रि के चारों प्रहर बीत जाते हैं। जो नक्षत्र पूर्णिमा को उदित होता है और चन्द्र को रात्रि के अन्त तक पहुँचाता है, उसी नक्षत्र के पर महीने के नाम रखे गए हैं। श्रावण और ज्येष्ठ मास इसके अपवाद हैं । २ विशेष दिनचर्या २१. पुव्विल्लंमि चउब्भाए पडिलेहित्ताण भण्डयं । गुरुं वन्दित्तु सज्झायं कुज्जा दुक्खविमोक्खणं ॥ [२१] दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में पात्र आदि भाण्डोपकरणों का प्रतिलेखन करके (फिर) गुरु को वन्दन कर दुःख से विमुक्त करने वाला स्वाध्याय करे । २२. पोरिसीए चउब्भाए वन्दित्ताण तओ गुरुं । अपडिक्कमित्ता कालस्स भायणं पडिलेहए ॥ [२२] पौरुषी के चतुर्थ भाग में (अर्थात् पौन पौरुषी व्यतीत हो जाने पर) गुरु को वन्दना करके, कल का प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) किये विना ही भाजन का प्रतिलेखन करे । विवेचन – विशेष दिनकृत्य का संकेत –सूर्योदय के समय पौरुषी का प्रथम चतुर्थ भाग शेष रहते भाण्डक का प्रतिलेखन करे। भाण्डक का अर्थ किया है— प्रावृवर्षाकल्पादि उपधि । अर्थात् जो उपधि चातुर्मासिक वर्षाकाल के योग्य हो । ३ अपडिक्कमत्ता कालस्स- २२वीं गाथा में यह बताया गया है पौरुषी का चतुर्थभाग शेष रहते अर्थात् पादोन पौरुषी के कायोत्सर्ग किये बिना ही भाजन (पात्र) - प्रतिलेखना करे । तात्पर्य यह है सामान्यतया प्रत्येक कार्य की परिसमाप्ति पर कायोत्सर्ग करने का विधान है। इसलिए यहाँ भी आशंका प्रकट की गई है कि स्वाध्याय से उपरत होने पर प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करके दूसरा कार्य प्रारम्भ करना चाहिए; उसका प्रतिवाद करते हुए प्रस्तुत में कहा गया है। :- काल का प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) किये विना ही पात्र १. (क) ओघनिर्युक्ति गा. ६५८ वृत्ति, पत्र २०५, गा. ६६२-६६३ २. (क) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वक्षस्कार ७, सू. १६२ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५४० - (ख) दशवैकालिक ५/२/४ (ख) उत्तरा. (गुजराती भावनगर) २, पत्र २१०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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