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छव्वीसवाँ अध्ययन : सामाचारी
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(४) प्रतिपृच्छना -गुरु द्वारा पूर्वनिषिद्ध कार्य को पुनः करना आवश्यक हो तो पुनः गुरुदेव से पूछना चाहिए कि आपने पहले इस कार्य का निषेध कर दिया था, परन्तु यह कार्य अतीव आवश्यक है, अतः आप आज्ञा दें तो यह कार्य कर लूं। इस प्रकार पुनः पूछना प्रतिपृच्छना है। प्रस्तुत में स्वयंकरण के लिए आपृच्छा (प्रथम बार पूछने) तथा परकरण के लिए प्रतिपृच्छा (पुनः पूछने) का विधान है। (५) छन्दना स्वयं को भिक्षा में प्राप्त हुए आहार के लिए अन्य साधुओं को निमंत्रण करना कि यह आहार लाया हूँ, यदि आप भी इसमें से कुछ ग्रहण करें तो मैं धन्य होऊँगा। इसी के साथ ही 'निमंत्रणा' भी भगवती आदि सूत्रों में प्रतिपादित है, जिसका अर्थ है -आहार लाने के लिए जाते समय अन्य साधुओं से भी पूछना कि क्या आपके लिये भी आहार लेता आऊँ?, निमंत्रण के बदले प्रस्तुत में 'अभ्युत्थान' शब्द प्रयुक्त है। जिसका अर्थ और है। (६) इच्छाकार-'यदि आपकी इच्छा हो अथवा आप चाहें तो मैं अमुक कार्य करूं?' इस प्रकार पूछना इच्छाकार है, अथवा बड़ा या छोटा साधु कोई कार्य अपने से बड़े या छोटे साधु से कराना चाहे तो उत्सर्गमार्ग में यहाँ बल प्रयोग सर्वथा वर्जित है। अतः उसे इच्छाकार (प्रार्थना) का प्रयोग करना चाहिए कि अगर आपकी इच्छा हो तो (मेरा) काम आप करें। (७) मिथ्याकार-संयम का पालन करते हुए साधु से कोई विपरीत आचरण हो जाए तो फौरन उस दुष्कृत्य के लिए पश्चात्तापपूर्वक वह 'मिच्छामि दुक्कडं' कहे, यह 'मिथ्याकार' है। (८) तथाकार-गुरु आदि जब शास्त्र-वाचना दें, सामाचारी आदि का उपदेश दें अथवा सूत्र या अर्थ बताएं अथवा कोई भी बात कहें, तब आप जैसा कहते हैं, वैसा ही अवितथ (-सत्य) है, इस प्रकार उनकी बात को स्वीकार करना 'तथाकार' है। (९) अभ्युत्थान -आचार्य, गुरु या स्थविर आदि विशिष्ट गौरवाह साधुओं को आते देख कर अपने आसन से उठना, सामने जा कर उनका सत्कार करना, 'आओ-पधारो' कहना अभ्युत्थान सामाचारी है। नियुक्तिकार ने अभ्युत्थान के बदले 'निमंत्रणा' शब्द का प्रयोग किया है। सामान्य अर्थ में 'अभ्युत्थान' शब्द हो तो उसका अर्थ होगा—'आचार्य, ग्लान, रुग्ण, बालक साधु आदि के लिए यथोचित आहर-औषध आदि ला देने का प्रयत्न करना।
(१०) उपसम्पदा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सेवा आदि कारणों से आपवादिक रूप में एक गण (या गच्छ) के साधु का दूसरे गण (गच्छ) के आचार्य, उपाध्याय, बहुश्रुत, स्थविर, गीतार्थ आदि के समीप अमुक अवधि तक रहने के लिए जाना उपसम्पदा है। 'इतने काल तक मैं आपके पास (अमुक विशिष्ट प्रयोजनवश) रहूँगा', इस प्रकार से उपसम्पदा धारण की जाती है। उपसम्पदा तीन प्रयोजनों से ग्रहण की जाती है - (१) ज्ञान के लिए, (२) दर्शन के लिए और (३) चारित्र के लिए। ज्ञानार्थ उपसम्पदा वह है, १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५३५ (ख) 'आणा बलाभिओगो निग्गंथाणं न कप्पए काउं। इच्छा पउंजियव्वा सेहे रायणिए य तहा ।। ६७७।।'
अपवादतस्तु आज्ञा-बलाभियोगावपि दुर्विनीते प्रयोक्तव्यौ, तेन सहोत्सर्गतः संवास एवं न कल्पते, बहुत्वजनादिकारणप्रतिबद्धतया त्वपरित्याज्येऽयं विधि:-प्रथमिच्छाकारेण युज्यते, अकुर्वत्राज्ञया पुनर्वलाभियोगेनेति।
-आवश्यकनियुक्ति गा.६७७ वृत्ति, पत्र ३४४ (ग) वायणपडिसुणयाए उवएसे सुत्त-अत्थ कहणाए। अवितहमेअंति तहा, पडिसुणणाए य तहकारो।।
-आवश्यकनियुक्ति गा.६८९ (घ) अभीत्याभिमुख्येनोत्थानम् --उद्यमनं अभ्युत्थानम् । तच्च गुरुपूयत्ति सूत्रत्वाद् गुरुपूजायाम्।
सा च गौरवार्हाणाम्-आचार्य-ग्लानबालादीनां यथोचिताहारभैषजादि सम्पादनम् । इह च सामान्याभिधानेऽप्यभ्युत्थानं निमंत्रणारूपमेव परिगृह्यते।
-बृहद्वृत्ति, पत्र ५३५