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उत्तराध्ययनसूत्र
तिण्णा संसारसागरं-संसार-सागर को तैर गए हैं, अर्थात् मुक्ति पाए हैं, उपलक्षण से संसार-सागर तरेंगे और वर्तमान में तरते हैं। दशविध सामाचारी का प्रयोजनात्मक स्वरूप
५. गमणे आवस्सियं कुजा ठाणे कुज्जा निसीहियं।
(आपच्छणा सयंकरणे परकरणे पडिपुच्छणा॥ [५] (१) गमन करते (अपने आवासस्थान से बाहर निकलते) समय ('आवस्सियं' के उच्चारणपूर्वक) आवश्यकी' (सामाचारी) करे, (२) (अपने) स्थान में (प्रवेश करते समय) ('निसीहियं' के उच्चारणपूर्वक) नैंषेधिकी (सामाचारी) करे, (३) अपना कार्य करने में (गुरु से अनुमति लेना) 'आपृच्छना' (सामाचारी) है और (४) दूसरों के कार्य करने में (गुरु से अनुमति लेना) 'प्रतिपृच्छना' (सामाचारी) है।
६. छन्दणा दव्वजाएणं इच्छाकारो य सारणे।
मिच्छाकारो य निन्दाए तहक्कारो य पडिस्सुए।। __[६] (५) (पूर्वगृहीत) द्रव्यों के लिए (गुरु आदि को) आमंत्रित करना 'छन्दना' (सामाचारी) है, (६) सारणा (स्वेच्छा से दूसरों का कार्य करने में विनम्र प्रेरणा करने) में 'इच्छाकार' (सामाचारी) है, (७) (दोषनिवृत्ति के लिए आत्म-) निन्दा करने में 'मिथ्याकार' (सामाचारी) है और (८) गुरुजनों के उपदेश को प्रतिश्रवण (स्वीकार) करने के लिए 'तथाकार' (सामाचारी) है।
७. अब्भुट्ठाणं गुरुपूया अच्छणं उवसंपदा।
एवं दु-पंच संजुत्ता सामायारी पवेइया।। [७] (९) गुरुजनों की पूजा (सत्कार) के लिए (आसन से उठ कर खड़ा होना) 'अभ्युत्थान' (सामाचारी) है, (१०) (किसी विशिष्ट प्रयोजन से) दूसरे (गण के) आचार्य के पास रहना, 'उपसम्पदा' (सामाचारी) है। इस प्रकार दश-अंगों से युक्त (इस) सामाचारी का निरूपण किया गया है।
विवेचन –दशविध सामाचारी का विशेषार्थ-(१) आवश्यकी-समस्त आवश्यक कार्यवश उपाश्रय (धर्मस्थान) से बाहर जाते समय साधु को 'आवस्सिया' कहना चाहिए। अर्थात् –'मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जा रहा हूँ।' इसके पश्चात् साधु कोई भी अनावश्यक कार्य न करे। (२) नैषेधिकीकार्य से निवृत्त होकर जब वह उपाश्रय में प्रवेश करे, तब 'निसीहिया' (नैषेधिकी) का उच्चारण करे, अर्थात् मैं आवश्यक कार्य से निवृत्त हो चुका हूँ। इसका यह भी आशय है कि प्रवृत्ति के समय कोई पापानुष्ठान हुआ हो तो उसका भी निषेध करता (निवृत्त होत) हूँ। ये दोनों मुख्यतया गमन और आगमन की सामाचारी हैं, जो गमन-आगमन काल में लक्ष्य के प्रति जागृति के लिए हैं। (३) आपृच्छना-किसी भी कार्य में (प्रथम या द्वितीय बार) प्रवृत्ति के लिए पहले गुरुदेव से पूछना कि 'मैं यह कार्य करूँ या नहीं?' १. निर्ग्रन्थाः यतयस्तीर्णाः संसारसागरं, मुक्ति प्राप्ता इति भावः। उपलक्षणत्वात् तरन्ति तरिष्यन्ति चेति सूत्रार्थः।
-उत्तरा. वृत्ति, अ. रा. को. भा. ७, पृ. ७७२