________________
४०८
उत्तराध्ययनसूत्र [४३] इसी प्रकार जो मनुष्य दुर्बुद्धि और कामलालसा में आसक्त हैं, वे विषयों में चिपक जाते हैं। विरक्त साधक सूखे गोले की भांति नहीं चिपकते ।
विवेचन–उवलेव–उपलेप-कर्मोपचयरूप बन्ध। अभोगी-भोगों का जो उपभोक्ता नहीं है।
मा भमहिसि भयावट्टे —हे विजयघोष! तू मिथ्यात्व के कारण घोर संसारसमुद्र में भ्रमण कर रहा है। अतः मिथ्यात्व छोड़ और शीघ्र ही भागवती मुनिदीक्षा ग्रहण कर, अन्यथा सप्तभयरूपी आवर्तों के कारण भयावह संसार-समुद्र में डूब जाएगा।
कामलालसा—कामभोगों में लम्पट । विरक्ति, दीक्षा और सिद्धि
४४. एवं से विजयघोसे जयघोसस्स अन्तिए।
अणगारस्स निक्खन्तो धम्म सोच्चा अणुत्तरं ।। [४४] इस प्रकार वह विजयघोष (संसार से विरक्त होकर) जयघोष अनगार के पास अनुत्तर धर्म को सुनकर दीक्षित हो गया।
४५. खवित्ता पुव्वकम्माइं संजमेण तवेण य।
जयघोस-विजयघोसा सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ।। ___त्ति बेमि [४५] (फिर) जयघोष और विजयघेष दोनों मुनियों ने तप और संयम के द्वारा पूर्व संचित कर्मों को क्षीण कर अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की। —ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन विशिष्ट शब्दों के विशेषार्थ निक्खंतो—भागवती दीक्षा ग्रहण की। अनुत्तरं सिद्धिं पत्ता-अनुत्तर–सर्वोत्कृष्ट सिद्धि-मुक्तिगति प्राप्त की।
।। यज्ञीय : पच्चीसवाँ अध्ययन समाप्त।।
נננ
१. उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. कोष भाग, ४ पृ. १४२२ २. उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ४, पृ. १४२२