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________________ पच्चीसवाँ अध्ययन : यज्ञीय ४०७ [३७] सन्तुष्ट हुए विजयघोष ने हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहा-आपने मुझे यथार्थ ब्राह्मणत्व का बहुत ही अच्छा उपदर्शन कराया। ३८. तुब्भे जइया जनाणं तुब्भे वेयविऊ विऊ। जोइसंगविऊ तुब्भे तुब्भे धम्माण पारगा॥ ___ [३८] आप ही यज्ञों के (सच्चे) याज्ञिक (यष्टा) हैं, आप वेदों के ज्ञाता विद्वान् हैं, आप ज्योतिषांगों के वेत्ता हैं. और आप ही धर्मों (धर्मशास्त्रों) के पारगामी हैं। ३९. तुब्भे समत्था उद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य। ___ तमणुग्गहं करेहऽम्हं भिक्खेण भिक्खु उत्तमा॥ [३९] आप अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं। अत: उत्तम भिक्षुवर ! भिक्षा स्वीकार कर हम पर अनुग्रह कीजिए। विवेचन–जहाभूयं—जैसा स्वरूप है, वैसा यथार्थ स्वरूप। धम्माण पारगा-धर्माचरण में पारंगत। भिक्खेण—भिक्षा ग्रहण करके। जयघोष मुनि द्वारा वैराग्यपूर्ण उपदेश ४०. न कजं मज्झ भिक्खेण खिप्पं निक्खमसू दिया। मा भमिहिसि भयावट्टे घोरे संसारसागरे॥ [४०] (जयघोष मुनि-) मुझे भिक्षा से कोई प्रयोजन (कार्य) नहीं है । हे द्विज ! (मैं चाहता हूँ कि) तुम शीघ्र ही अभिनिष्क्रमण करो (अर्थात्-गृहवास छोड़ कर श्रमणत्व अंगीकार करो), जिससे तुम्हें भय के आवौं वाले संसार-सागर में भ्रमण न करना पड़े। ४१. उवलेवो होइ भोगेसु अभोगी नोवलिप्पई। भोगी भमइ संसारे अभोगी विप्पमुच्चई॥ [४१] भोगों के कारण (कर्म का) उपलेप (बन्ध) होता है, अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है, (जबकि) अभोगी (उससे) विमुक्त हो जाता है। ४२. उल्लो सुक्को य दो छुढा गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कुड्डे जो उल्लो सो तत्थ लग्गई। __ [४२] एक गीला और एक सूखा, ऐसे दो मिट्टी के गोले फैंके गए। वे दोनों दीवार पर लगे। उनमें से जो गीला था, वह वहीं पर चिपक गया। (सूखा गोला नहीं चिपका।) ४३. एवं लग्गन्ति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा। विरत्ता उ न लग्गन्ति जहा सुक्को उ गोलओ।। १. उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ४, पृ.१४२२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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