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उत्तराध्ययनसूत्र
[३३] कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता
है।
३४. एए पाउकरे बुद्धे जेहिं होई सिणायओ।
सव्वकम्मविनिम्मुक्कं तं वयं बूम माहणं॥ [३४] प्रबुद्ध (अर्हत्) ने इन (तत्त्वों) को प्रकट किया है। इसके द्वारा जो स्नातक (परिपूर्ण) होता है तथा सर्वकर्मों से विमुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
३५. एवं गुणसमाउत्ता जे भवन्ति दिउत्तमा।
ते समत्था उ उद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य॥ [३५] इस प्रकार जो गुणसम्पन्न (पंच महाव्रती) द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ होते हैं।
विवेचन ब्राह्मण-श्रमणादि के वास्तविक लक्षण–प्रस्तुत गाथाओं में मुनिवर जयघोष ने एकएक असाधारण गुण द्वारा यह स्पष्ट पहचान बता दी है कि श्रमण, ब्राह्मण, मुनि, तपस्वी तथा ब्राह्मणादि चारों वर्ग किन-किन गुणों से अपने वास्तविक स्वरूप में समझे जाते हैं।
ब्राह्मणादि चारों वर्ण जन्म से नहीं, कर्म (क्रिया) से—इस गाथा का आशय यह है कि ब्राह्मण केवल वेद पढ़ने एवं यज्ञ करने या जपादि करने मात्र से नहीं होता। उसके लिए उस वर्ण के असाधारण गुणों से उसकी पहचान होती है। जैसे कि ब्राह्मण का लक्षण किया गया है
क्षमा दानं दमो ध्यानं, सत्यं शौचं धृतिघृणा।
ज्ञान-विज्ञानमास्तिक्यमेतद् ब्राह्मणलक्षणम्॥ क्षमा, दान, दम, ध्यान, सत्य, शौच, धैर्य और दया, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक्य, ये ब्राह्मण के लक्षण हैं । इन गुणों से जो युक्त हो, वही ब्राह्मण है। इसी प्रकार शरणगतरक्षण रूप गुण से क्षत्रिय होता है, क्षत्रिय कुल में जन्म लेने मात्र से या शस्त्र बांधने से ही कोई 'क्षत्रिय' नहीं कहला सकता। वैश्य भी कृषि-पशुपालन, वाणिज्य आदि क्रिया से कहलाता है, न कि जन्म से। विजयघोष द्वारा कृतज्ञताप्रकाशन एवं गुणगान
३६. एवं तु संसए छिन्ने विजयघोसे य माहणे।
समुदाय तयं तं तु जयघोसं महामुणिं॥ [३६] इस प्रकार संशय मिट जाने पर विजयघोष ब्राह्मण ने महामुनि जयघोष की वाणी को सम्यक् रूप से स्वीकार किया।
३७. तुढे य विजयघोसे इणमुदाहु कयंजली।
माहणत्तं जहाभूयं सुट्ठ मे उवदंसियं॥ १. उत्तरा. (गुजराती अनुवाद भावनगर) भा. २, पत्र २०३-२०४ का सारांश २. उत्तराध्ययन संस्कृतटीका. अभि. रा. कोष भा. ४, पृ. १४२१