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________________ पच्चीसवाँ अध्ययन : यज्ञीय ४०५ (१) जो लोक में अग्निवत् पूज्य हो. (२) जो स्वजनादि के आगमन एवं गमन पर हर्ष या शोक से ग्रस्त नहीं होता, (३) अर्हत्-वचनों में रमण करता हो, (४) स्वर्णसम विशुद्ध हो. (५) राग, द्वेष एवं भय से मुक्त हो. (६) तपस्वी, कृश, दान्त, सुव्रत एवं शान्त हो, (७) तप से जिसका रक्त-मांस कम हो गया हो, (८) जो मन-वचन-काया से किसी जीव की हिंसा नहीं करता. (९) जो क्रोधादि वश असत्य नहीं बोलता, (१०) जो किसी प्रकार की चोरी नहीं करता. (११) जो मन-वचन-काया से किसी प्रकार का मैथुन सेवन नहीं करता, (१२) जो कामभोगों से अलिप्त रहता है, (१३) जो अनगार, अकिंचन, गृहस्थों में अनासक्त, मुधाजीवी एवं रसों में अलोलुप है और (१४) जो पूर्व संयोगों, ज्ञातिजनों और बान्धवों का त्याग करके फिर उनमें आसक्त नहीं होता। मीमांसकमान्य वेद और यज्ञ आत्मरक्षक नहीं ३०. पसुबन्धा सव्ववेया जठं च पावकम्मुणा। न तं तायन्ति दुस्सीलं कम्माणि बलवन्ति हि॥ [३०] सभी वेद पशुबन्ध ( यज्ञ में वध के लिए पशुओं को बांधने) के हेतुरूप हैं और यज्ञ भी पाप (के हेतुभूत पशुवधादि अशुभ) कर्म से होते हैं। अत: वे (पापकर्म से कृत यज्ञ) ऐसे (दुःशील) अनाचारी का त्राण-रक्षण नहीं कर सकते, क्योंकि कर्म बलवान् हैं। विवेचन-कम्माणि बलवंति–पूर्वोक्त प्रकार से हिंसक यज्ञों में किये हुए पशुवधादि दुष्टकर्म के कर्ता को बलात् नरक आदि दुर्गतियों में ले जाते हैं। क्योंकि वेद और यज्ञ में पशुवधादि होने से दुष्कर्म अत्यन्त बलवान् होते हैं। अत: ऐसे यज्ञ करने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता। श्रमण-ब्राह्मणादि किन गुणों से होते हैं, किनसे नहीं? ३१. न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणो। न मुणी रणवासेणं कुसचीरेण न तावसो॥ [३१] केवल मस्तक मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता और न ओंकार का जाप करने मात्र से ब्राह्मण होता है, अरण्य में निवास करने से ही कोई मुनि नहीं हो जाता और न कुशनिर्मित चीवर के पहनने मात्र से कोई तापस होता है। ३२. समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्भणो। नाणेण य मुणी होइ तवेणं होइ तावसो॥ [३२] समभाव (धारण करने) से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य (पालन) से ब्राह्मण होता है, ज्ञान (प्राप्त करने) से मुनि होता है और तपश्चरण करने से तापस होता है। ३३. कम्मुणा बम्भणो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मणा॥ १. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र २०० से २०२ तक २. उत्तराध्ययनवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ४, पृ. १४२१
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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