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-छटवीसवाँ अध्ययनसामाचारी
अध्ययन - सार
* प्रस्तुत छव्वीसवें अध्ययन का नाम 'सामाचारी' (सामायारी) है।
* इसमें साधुजीवन की उस व्यवस्था एवं चर्या का वर्णन है, जिससे साधु परस्पर सम्यक् व्यवहार, आचरण और कर्त्तव्य का यथार्थ पालन करके समस्त शारीरिक-मानसिक दुःखों से मुक्त एवं सिद्ध, बुद्ध हो सके ।
* आचार के दो अंग हैं - व्रतात्मक और व्यवहारात्मक । संघीय जीवन को सुव्यवस्थित ढंग से यापन करने के लिए न तो दूसरों के प्रति उदासीनता, रूक्षता एवं अनुत्तरदायिता होनी चाहिए और न अपने या दूसरों के जीवन (शरीर - इन्द्रिय, मन आदि) के प्रति लापरवाही, उपेक्षा या आसक्ति · होनी चाहिए। इसलिए स्थविरकल्पी साधु के जीवन में व्रतात्मक आचार की तरह व्यवहारात्मक आचार भी आवश्यक है। जिस धर्मतीर्थ (संघ) में व्यवहारात्मक आचार का सम्यक् पालन होता है उसकी एकता अखण्ड रहती है, वह दीर्घजीवी होता है और ऐसा धर्मतीर्थ साधु-साध्वियों को तथा श्रावक-श्राविकाओं को संसारसागर से तारने में समर्थ होता है।
* प्रस्तुत अध्ययन में व्यवहारात्मक शिष्टजनाचरित १० प्रकार को सामाचारी का वर्णन है। सामाचारी के दो रूप आगमों में पाए जाते हैं— ओघसामाचारी और पदविभागसामाचारी । प्रस्तुत अध्ययन में ओघसामाचारी के १० प्रकार ये हैं - (१) आवश्यकी, (२) नैषेधिकी, (३) आपृच्छना, (४) प्रतिपृच्छना, (५) छन्दना, (६) इच्छाकार, (७) मिथ्याकार, (८) तथाकार, (९) अभ्युत्थान और (१०) उपसम्पदा ।
* साधु का कर्त्तव्य है कि कार्यवश उपाश्रय से बाहर जाते और वापस लौटने पर आने की सूचना गुरुजनों को करे अपने कार्य के लिए गुरुजनों से पूछकर अनुमति ले, दूसरों के कार्य के लिए भी पूछे। कोई भी वस्तु लाए तो पहले गुरु आदि को आमंत्रित करे, दूसरों का कार्य आभ्यन्तरिक अभिरुचिपूर्वक करे तथा दूसरों से कार्य लेने के लिए उनको इच्छानुकूल निवेदन करे, दबाव न डाले । दोषों की निवृत्ति के लिए मिथ्याकार ( आत्मनिन्दा) करे। गुरुजनों के उपदेश - आदेश या वचन को 'तथाऽस्तु' कह कर स्वीकार करे। गुरुजनों को सत्कार देने के लिए आसन से उठकर खड़ा हो और किसी विशिष्ट प्रयोजनवश अन्य आचार्यों के पास रहना हो तो उपसम्पदा धारण करे। यह दस प्रकार की सामाचारी है।
* उसके पश्चात् औत्सर्गिक दिनचर्या के चार भाग करे। (१) भाण्डोपरकण-प्रतिलेखन, (२) स्वाध्याय या वैयावृत्त्य की अनुज्ञा ले और गुरुजन जिस कार्य में नियुक्त करें, उसे मनोयोगपूर्वक करे। दिन के ४ भाग करके प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में भिक्षाचर्या और चतुर्थ प्रहर में पुन: स्वाध्याय करे ।