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पच्चीसवाँ अध्ययन : यज्ञीय
४०३ विज्जामाहणसंपया सामान्यतया इसका अर्थ होता है—विद्या ब्राह्मणों की सम्पदा है। आरण्यक एवं ब्रह्माण्डपुराण में अंकित अध्यात्मविद्या ही विद्या है। वही ब्राह्मणों की सम्पदा है। क्योंकि तत्त्वज्ञ ब्राह्मण अकिंचन (अपरिग्रही) होने के कारण विद्या ही उनकी सम्पदा होती है। वे आरण्यक में उक्त १० प्रकार के अहिंसादि धर्मों की विद्या जानते हुए ऐसे हिंसक यज्ञ क्यों करेंगे?
सज्झायतवसा गूढा-शंका हो सकती है कि विजयघोष आदि ब्राह्मण तो आरण्यक आदि के ज्ञाता थे, फिर उन्हें उनसे अनभिज्ञ क्यों कहा गया? इसी का रहस्य इस १८ वीं गाथा में प्रकट किया गया है। तथाकथित हिंसापरक याज्ञिक ब्राह्मणों का स्वाध्याय (वेदाध्ययन) और तप गूढ है, अर्थात् राख से ढंकी अग्नि की तरह आच्छादित है। आशय यह है कि जैसे अग्नि बाहर राख से ढंकी होने से ठंडी दिखाई देती है, किन्तु अन्दर उष्ण होती है, वैसे ही ये ब्राह्मण बाहर से तो वेदाध्ययन तथा उपवासादि तप:कर्म आदि के कारण उपशान्त दिखाई देते हैं, मगर अन्दर से वे प्रायः कषायाग्नि से जाज्वल्यमान हैं। इस कारण जयघोष मुनि के कहने का आशय है कि इस प्रकार के ब्राह्मण स्व-पर का उद्धार करने में समर्थ कैसे हो सकते हैं?
वेयसां वेदसां—यज्ञों का। सच्चे ब्राह्मण के लक्षण
१९. जे लोए बम्भणो वुत्तो अग्गी वा महिओ जहा।
सया कुसलसंदिटुं तं वयं बूम माहणं॥ ___ [१९] जिसे लोक में कुशल पुरुषों ने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
२०. जो न सज्जइ आगन्तुं पव्वयन्तो न सोयई।
रमए अजवयणंमि तं वयं बूम माहणं॥ [२०] जो (प्रिय स्वजनादि के) आने पर आसक्त नहीं होता और (उनके) जाने पर शोक नहीं करता, जो आर्यवचन (अर्हवाणी) में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
२१. जायरूवं जहामठें निद्धन्तमलपावर्ग।
राग-द्दोस-भयाईयं तं वयं बूम माहणं॥ [२१] (कसौटी पर) कसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल (तपा कर शुद्ध) किये हुए जातरूप (स्वर्ण) की तरह जो विशुद्ध है, जो राग, द्वेष और भय से रहित (अतीत) है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
२२. तवस्सियं किसं दन्तं अवचियमंस-सोणियं।
सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तं वयं बूम माहणं॥ [२२] जो तपस्वी है (और तीव्र तप के कारण) कृश है, दान्त है, जिसका मांस और रक्त अपचित (कम) हो गया है, जो सुव्रत है और शान्त (निर्वाणप्राप्त) है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२६ २. वही, पत्र ५२५