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उत्तराध्ययनसूत्र दीक्षित साधक को कर्मरूपी इन्धन लेकर धर्मध्यानरूपी अग्नि में उत्तम भावना रूपी घृताहुति देना अग्निहोत्र है। जैसे दही का सारभूत तत्त्व नवनीत है, वैसे ही वेदों का सारभूत तत्त्व आरण्यक है। उसमें सत्य, तप, सन्तोष, क्षमा, चारित्र, आर्जव, श्रद्धा, धृति, अहिंसा और संवर, यह दस. प्रकार का धर्म कहा गया है। अतः तदनुसार उपर्युक्त अग्निहोत्र यथार्थ रूप से हो सकता है। इसी अग्निहोत्र में मन के विकार स्वाहा होते हैं।
(२)दूसरे प्रश्न का उत्तर-यज्ञ का मुख अर्थात्-उपाय (प्रवृत्ति-हेतु) यज्ञार्थी बताया है। विजयघोष यज्ञ का उपाय ब्राह्मणपरम्परानुसार जानता ही था, जयघोष मुनि ने आत्मयज्ञ के सन्दर्भ में अपने बहिर्मुख इन्द्रिय एवं मन को असंयम से हटाकर, संयम में केन्द्रित करने वाले संयमरूप भावयज्ञकर्ता आत्मसाधक को सच्चा यज्ञार्थी (याजक) बताया है। आत्मयज्ञ में ऐसे ही यज्ञार्थी की प्रधानता है।
(३) तीसरा प्रश्नोत्तर-कालज्ञान से सम्बन्धित है। स्वाध्याय आदि समयोचित कर्त्तव्य के लिए काल का ज्ञान श्रमण और ब्राह्मण दोनों ही परम्पराओं के लिए अनिवार्य था। वह ज्ञान स्पष्टतः होता था—नक्षत्रों से। चन्द्र की हानि-वृद्धि से तिथियों का बोध भलीभांति हो जाता था। अतः मुनि ने यथार्थ उत्तर दिया है, चन्द्र नक्षत्रों में मुख्य है। इस उत्तर की तुलना गीता के इस वाक्य से की जा सकती है—'नक्षत्राणामहं शशी' (मैं नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ)।
(४) चतुर्थ प्रश्नोत्तर-धर्मों का मुख अर्थात् श्रुत-चारित्रधर्मों का आदि कारण क्या है—कौन है? धर्म का प्रथम प्रकाश किससे प्राप्त हुआ? जयघोष मुनि का उत्तर है-धर्मों का मुख (आदिकारण) काश्यप है। वर्तमान कालचक्र में आदि काश्यपदेव ही धर्म के आदि-प्ररूपक, आदि-उपदेष्टा तीर्थंकर हैं। भगवान् ऋषभदेव ने वार्षिक तप का पारणा काश्य अर्थात्—इक्षुरस से किया था, अत: वे काश्यप नाम से प्रसिद्ध हुए। आगे चल कर यही उनका गोत्र हो गया। स्थानांगसूत्र में बताया गया है कि मुनिसुव्रत और नेमिनाथ दो तीर्थंकरों को छोड़ कर शेष सभी तीर्थंकर काश्यपगोत्री थे। सूत्रकृतांग से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी तीर्थंकर काश्यप (ऋषभदेव) के द्वारा प्ररूपित धर्म का ही अनुसरण करते रहे हैं। इस सन्दर्भ में बृहद्वृत्तिकार ने आरण्यक का एक वाक्य भी उद्धृत किया है-'ऋषभ एव भगवान् ब्रह्मा. १ १. (क) अग्निहोत्रं हि अग्निकारिका, सा चेयम
कर्मेन्धनं समाश्रित्य, दृढा सदभावनाहतिः।
धर्मध्यानाग्निना कार्या, दीक्षितेनाऽग्निकारिका। (ख) यज्ञो दशप्रकार: धर्म:
सत्यं तपश्च सन्तोषः, क्षमा चारित्रमार्जवम्। श्रद्धा धृतिरहिंसा च, संवरश्च तथा परः।
-आरण्यक ग्रन्थ स चात्र भावज्ञस्तमर्थयति-अभिलषतीति यज्ञार्थो; संयमीत्यर्थः। -बृहद्वृत्ति, पत्र ५२५ (ग) नक्षत्राणामष्टाविशतीनां मुखं– प्रधानं चन्द्रो वर्तते।
'नक्षत्राणामहं शशी।' -गीता-१०/ २१ (घ) धर्माणां श्रुतचारित्रधर्माणां काश्यपः आदीश्वरो मुखं वर्तते। धर्माः सर्वेऽपि तेनैव प्रकाशिता इत्यर्थः।
-बृहद्वृत्ति, पत्र ५२६ (ड) काशे भवः काश्य:-रसस्तं पीतवानिति काश्यपस्तदपत्यानि-काश्यपाः। मुनिसुव्रत-नेमिवर्जा जिनाः।
-स्थानांग, ७/५५१ (च) 'कासवस्स अणुधम्मचारिणो०' -सूत्रकृतांग १/२/३/२० (छ) बृहद्वृत्ति में उद्धृत आरण्यकपाठ, पत्र ५२५