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पच्चीसवाँ अध्ययन : यज्ञीय
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ने अपनी समग्र परिषद्-सहित हाथ जोड़ कर उन महामुनि से पूछा
१४. वेयाणं च मुहं बूहि बूहि जन्नाण जं मुहं।
___नक्खत्ताण मुहं ब्रूहि बूहि धम्माण वा मुहं॥ [१४](विजयघोष ब्राह्मण-) तुम्हीं कहो-वेदों का मुख क्या है? यज्ञों का जो मुख है उसे बतलाइए, नक्षत्रों का मुख बताइए और धर्मों का मुख भी कहिए।
१५. जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य।
एवं मे संसयं सव्वं साहू! कहसू पुच्छिओ॥ [१५] और—जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, उन्हें भी बताइए। 'हे साधु ! मुझे यह सब संशय है', (इसीलिए) मैंने आपसे पूछा है। आप कहिए।
विवेचन–तस्सऽक्खेवपमोक्खं च अचयंतो—साधु (जयघोष) के आक्षेपों अर्थात् प्रश्नों का प्रमोक्ष अर्थात् उत्तर देने में अशक्त-असमर्थ ।' जयघोष मुनि द्वारा समाधान
१६. अग्गिहोत्तमुहा वेया जन्नट्ठी वेयसां मुहं ।
नक्खत्ताण मुहं चन्दो धम्माणं कासवो मुहं ॥ ___ [१६] वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख 'यज्ञार्थी' है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है, और धर्मों के मुख हैं-काश्यप (ऋषभदेव)।
१७. जहा चंदं गहाईया चिट्ठन्ती पंजलीउडा।
वन्दमाणा नमंसन्ता उत्तमं मणहारिणो॥ [१७] जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह आदि (देव) हाथ जोड़े हुए चन्द्रमा को वन्दन-नमस्कार करते हुए रहते हैं, वैसे ही भगवान् ऋषभदेव-(उनके समक्ष भी देवेन्द्र आदि सभी विनयावनत एवं करबद्ध हैं)।
१८. अजाणगा जन्नवाई विजा माहणसंपया।
गूढा सज्झायतवसा भासच्छन्ना इवऽग्गिणो॥ [१८] विद्या ब्राह्मण (माहन) की सम्पदा है, यज्ञवादी उससे अनभिज्ञ हैं। वे बाह्य स्वाध्याय और तप से वैसे ही आच्छादित हैं, जैसे राख से आच्छादित (ढकी हुई) अग्नि।
विवेचन-चार प्रश्नों के उत्तर-विजयघोष द्वारा पूछे गए चार प्रश्नों के उत्तर १६वीं गाथा में, जयघोष मुनि द्वारा इस प्रकार दिये गये हैं
(१) प्रथम प्रश्न का उत्तर-वेदों का मुख अर्थात् प्रधानतत्त्व यहाँ अग्निहोत्र बताया गया है। अग्निहोत्र का ब्राह्मण-परम्परा में प्रचलित अर्थ विजयघोष को ज्ञात था, किन्तु जयघोष ने श्रमण-परम्परा की दृष्टि से अग्निहोत्र को वेद का मुख बताया है। अग्निहोत्र का अर्थ है-अग्निकारिका, जो कि अध्यात्मभाव है। १. उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. कोष भा. ४. पृ. १४२०