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जयघोष मुनि द्वारा विमोक्षणार्थ उत्तर
१०. नऽन्नट्टं पाणहेउं वा न वि निव्वाहणाय व । सिं विमोक्खगट्ठाए इमं वयणमब्बवी ॥
जो
[१०] न अन्न के लिए, न जल के लिए और न जीवननिर्वाह के लिए, किन्तु उस विप्र के विमोक्षण ( मिथ्याज्ञान- दर्शन से मुक्त करने) हेतु मुनि ने यह वचन कहा—
११. न वि जाणासि वेयमुहं न वि जन्नाण जं मुहं ।
नक्खत्ताण मुहं जं च जं च धम्माण वा मुहं ॥
[११] (जयघोष मुनि — ) तुम वेद के मुख को नहीं जानते और न यज्ञों का जो मुख है, नक्षत्रों का है और धर्मों का जो मुख है, उसे ही जानते हो ।
मुख
१२. जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य ।
न ते तुमं वियाणासि अह जाणासि तो भण ॥
उत्तराध्ययनसूत्र
[१२] अपने और दूसरों के उद्धार करने में जो समर्थ हैं, उन्हें भी तुम नहीं जानते । यदि जानते हो तो बताओ ।
विवेचन — धर्मोपदेश किसलिए ? - प्रस्तुत दसवीं गाथा में साधु को धर्मोपदेश या प्रबोध देने की नीति का रहस्योद्घाटन किया गया है। आचारांगसूत्र में बताया गया है कि साधु को इस दृष्टि से धर्मोपदेश नहीं देना चाहिए कि मेरे उपदेश से प्रसन्न होकर ये मुझे अन्न-पानी देंगे। न वस्त्र पात्रादि के लिए वह धर्म - कथन करता है। किन्तु संसार से निस्तार के लिए अथवा कर्मनिर्जरा के लिए धर्मोपदेश देना चाहिए ।
विमोक्खणट्ठाए – (१) कर्मबन्धन से मुक्ति प्राप्त कराने हेतु अथवा (२) अज्ञान और मिथ्यात्व से मुक्त करने हेतु ।
' मुख' शब्द के विभिन्न अर्थ - प्रस्तुत ११ वीं गाथा में मुख (मुंह) शब्द का चार स्थानों पर प्रयोग हुआ है। इसमें से प्रथम और तृतीय चरण में प्रयुक्त ' मुख' शब्द का अर्थ- 'प्रधान', द्वितीय और चतुर्थ चरण में प्रयुक्त ' मुख' शब्द का अर्थ— 'उपाय' है। ३
विजयघोष ब्राह्मण द्वारा जयघोष मुनि से प्रतिप्रश्न
१३. तस्सऽक्खेवपमोक्खं च अचयन्तो तर्हि दिओ । सपरिसो पंजली होउं पुच्छई तं महामुणिं ॥
[१३] उसके आक्षेपों (आक्षेपात्मक प्रश्नों) का प्रमोक्ष (उत्तर देने में असमर्थ ब्राह्मण (विजयघोष)
१. (क) एवं ज्ञात्वा नाऽब्रतीत् येनाऽहं एभ्य उपदेशं ददामि एते प्रसन्ना मह्यं सम्यक् अन्नापानं ददति — इति बुद्धया । “अपि च वस्त्रपात्रादिकानां निर्वाह एभ्यो मम भविष्यति तेन हेतुना नाऽब्रवीदिति भावः ।
(ख) से भिक्खु धम्मं किट्टमाणे- ...........
२. (क) विमोक्षणार्थं — कर्मबन्धनात् मुक्तिकरणार्थं ।
- उत्तरा वृत्ति, अभि. रा. को. भा. ४, पृ. १४१९
(ख) उत्तरा . ( गुजराती भाषान्तर, भावनगर) भा. २, पत्र १९८ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५२४