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पच्चीसवाँ अध्ययन : यज्ञीय
९.
सो एवं तत्थ पडिसिद्धी जायगेण महामणी । न वि रुट्ठो न वि तुट्टो उत्तमट्ठ गवेसओ ॥
[९] वहाँ (यज्ञपाटक में) इस प्रकार याजक (विजयघोष) के द्वारा इन्कार किये जाने पर वह महामुनि ( जयघोष ) न तो रुष्ट हुए और न तुष्ट (प्रसन्न हुए। (क्योंकि वह) उत्तम अर्थ (मोक्ष) के गवेषक (- अभिलाषी) थे।
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विवेचन - विप्र और द्विज में अन्तर — यद्यपि 'विप्र' और 'द्विज' दोनों सामान्यतया ब्राह्मण अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, परन्तु बृहद्वृत्तिकार ने इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट किया है- -ब्राह्मण जाति में उत्पन्न होने वाले 'विप्र' कहलाते हैं और जो व्यक्ति योग्य वय प्राप्त होने पर यज्ञोपवीत आदि से संस्कारित होते हैं, उन्हें संस्कार की अपेक्षा से 'द्विज' (दूसरा जन्म ग्रहण करने वाले) कहा जाता है।
प्राचीन काल में जो वेदपाठी होते , वे विप्र तथा जो वेदज्ञाता होने के साथ-साथ यज्ञ करते-कराते थे, वे द्विज कहलाते थे ।
जोइसंगविऊ— यद्यपि ज्योतिषशास्त्र वेद का एक अंग है, वह 'वेदवित्' शब्द के प्रयोग से गृहीत हो जाता है, तथापि यहाँ ज्योतिषशास्त्र को पृथक् अंकित किया गया है, वह इसकी प्रधानता को बताने के लिए है। अर्थात् वेदवेत्ता होते हुए भी जो ज्योतिष रूप अंग का विशेष रूप से ज्ञाता हो। चूंकि ज्योतिष कालविधायक शास्त्र है, वह वेद का नेत्र है तथा वेद के मुख्य विहित यज्ञों से ज्योतिष का विशिष्ट सम्बन्ध है, फलत: ज्योतिष का ज्ञाता ही यज्ञ का ज्ञाता है, इस महत्त्व के कारण 'ज्योतिषांगवित्' शब्द का पृथक् प्रयोग किया गया है। २ सव्वकामियं—(१) जिसमें कामिक अर्थात् अभिलषणीय सर्व वस्तुएँ हैं, (२) सर्व (षड्) रससिद्ध अथवा (३) सबको अभीष्ट ।
समुद्धत्तुं — समुद्धार करने — तारने में । ३
निर्ग्रन्थ मुनि का समत्वयुक्त आचार — उत्तराध्ययन के १९ वें अध्ययन की गाथा ९० के अनुसार लाभालाभ आदि में ही नहीं, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा - प्रशंसा, मानापमान में भी समभाव रखना निर्ग्रन्थ मुनिका प्रमुख आचार है। उसी का जयघोष मुनि ने यहाँ परिचय दिया है। वे भिक्षा के लिए याज्ञिक द्वारा इन्कार करने पर भी न रुष्ट हुए, न प्रसन्न ।
२
१. (क) विप्रा जातितः, ये द्विजाः - संस्कारापेक्षया द्वितीयजन्मानः । (ग) ' वेदपाठी भवेद् विप्रः ।'
(घ) 'जे य वेयविऊ विप्पा, जन्नट्ठा य जे दिया । ' - उत्तरा. अ. २५, गा. ७ (क) 'शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसां गतिः । ज्योतिषश्च षडंगानि (ख) 'यद्यपि ज्योतिःशास्त्रं वेदस्यांगमेवास्ति 'वेदविद्' इत्युक्ते आगतम्, प्राधान्यख्यापनार्थम् ।' — उत्तरा . वृत्ति, अ. रा. कोष भा ४, पृ. १४१९
३. सर्वकामिकं, षड्रससिद्धं सर्वाभिलषितम् । - उत्तरा वृत्ति अ. रा. कोष भा.४, पृ. १४१९, उत्तरा. (गु.भाषा.), पत्र १९७ (ख) दशवै. अ. ५ / २, गा. २७-२८
४.
(क) उत्तरा. अ. २१, गा. ९
(ख) 'संस्काराद् द्विज उच्यते ।'
'॥'
तथापि अत्र ज्योतिःशास्त्रस्य पृथगुपादानं