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________________ ३९८ जयघोष मुनि : विजयघोष के यज्ञ में ४. अह तेणेव कालेणं पुरीए तत्थ माहणे । विजयघोसे त्ति नामेण जन्नं जयइ वेयवी ॥ [४] उसी समय उस नगरी में वेदों का ज्ञाता विजयघोष नाम का ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था । अह से तत्थ अणगारे मासक्खमणपारणे । विजयघोसस्स जन्नमि भिक्खस्सऽट्ठा उवट्ठिए॥ ५. [५] एक मास की तपश्चर्या (मासखमण) के पारणा के समय जयघोष मुनि विजयघोष के यज्ञ में उपस्थित हुए। विवेचन—जन्नं जयई – प्राचीनकाल में कर्मकाण्डी मीमांसक 'यज्ञ' को ब्राह्मण के लिए श्रेष्ठतम कर्म मानते थे। बड़े-बड़े यज्ञसमारोहों में 'पशुबलि दी जाती । श्रमणसंस्कृति के उन्नायकों ने ऐसे यज्ञ का विरोध किया और पंचमहाव्रतरूप भावयज्ञ का प्रतिपादन किया, जिसमें अज्ञान, पापकर्म आदि की आहुति दी जाती है। प्रस्तुत में विजयघोष, जोकि जयघोष मुनि का गृहस्थपक्षीय सहोदर था, ऐसे ही किसी हिंसक यज्ञ का अनुष्ठान कर रहा था। उसके भाई जयघोष अनगार जो पंचमहाव्रतरूप अहिंसक यज्ञ के याज्ञिक बने हुये थे, विजयघोष द्वारा आयोजित यज्ञ (मण्डप) में भिक्षा के लिए पहुँचे । ' के यज्ञकर्ता द्वारा भिक्षादान का निषेध एवं मुनि की प्रतिक्रिया उत्तराध्ययनसूत्र जायगो पडिसैहए। ६. समुवट्ठियं तहिं सन्तं न हु दाहामि ते भिक्खं भिक्खू ! जायाहि अन्नओ ॥ [६] यज्ञकर्ता ब्राह्मण भिक्षा के लिए वहाँ उपस्थित मुनि को मना करता है— 'भिक्षु ! मैं तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा। अन्यत्र याचना करो । ' ७. जे य वेयविऊ विप्पा जन्नट्ठा य जे दिया। जोइसंगविऊ जे य जे य धम्माण पारगा ॥ [७] जो वेदों के ज्ञाता विप्र (ब्राह्मण) हैं, जो यज्ञ के ही प्रयोजन वाले द्विज (संस्कार से द्विजन्मा ) हैं, जो ज्योतिषशास्त्र के अंगों के वेत्ता हैं तथा जो धर्मों (-धर्मशास्त्रों) के पारगामी हैं । ८. जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य । सिं अन्नमिणं देयं भो भिक्खू ! सव्वकामियं ॥ [८] जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, उन्हीं को हे भिक्षु ! यह सर्वकामिक (समस्त इष्ट वस्तुओं से युक्त) अन्न देने योग्य है । १. (क) 'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म । - शतपथब्राह्मण १/७/४/५ (ख) अग्निष्टोमीयं पशुमालभेत । - वेद (ग) देखिये, उत्तरा . अ. १२ गा. ४२, ४४ में अहिंसक यज्ञ का स्वरूप (घ) बृहद्वृत्ति, पत्र ५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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