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समीक्षात्मक अध्ययन / ४९ सन्तानोत्पत्ति होगी और लोक तथा परलोक दोनों सुधरेंगे। परलोक को सुखी बनाने के लिए पुत्रप्राप्ति हेतु विविध प्रयत्न किये जाते थे । भगवान् महावीर ने स्पष्ट शब्दों में इस मान्यता का खण्डन किया। उन्होंने कहास्वर्ग और नरक की उपलब्धि सन्तान से नहीं होती। यहाँ तक कि माता-पिता, भ्राता, पुत्र, स्त्री आदि कोई भी कर्मों के फल- विपाक से बचाने में समर्थ नहीं हैं। सभी को अपने ही कर्मों का फल भोगना पड़ता है। इस कथन का चित्रण प्रस्तुत अध्ययन में किया गया है।
आचार्य भद्रबाहु ने प्रस्तुत अध्ययन में आये हुए सभी पात्रों के पूर्वभव, वर्तमानभव और निर्वाण का संक्षेप में वर्णन किया है। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि माता-पिता मोह के वशीभूत होकर पुत्रों को मिथ्या बात कहते हैं—जैन श्रमण बालकों को उठाकर ले जाते हैं। वे उनका मांस खा जाते हैं किन्तु जब बालकों को सही स्थिति का परिज्ञान होता है तो वे श्रमणों के प्रति आकर्षित ही नहीं होते अपितु श्रमणधर्म को स्वीकार करने को उद्यत हो जाते हैं। इस अध्ययन में पिता और पुत्र का मधुर संवाद है। इस संवाद में पिता ब्राह्मणसंस्कृति का प्रतिनिधित्व कर रहा है तो पुत्र श्रमणसंस्कृति का ब्राह्मणसंस्कृति पर श्रमणसंस्कृति की विजय बताई गई है। उनकी मौलिक मान्यताओं की चर्चा है। पुरोहित भी त्यागमार्ग को ग्रहण करता है और उसकी पत्नी आदि भी ।
प्रस्तुत अध्ययन का गहराई से अध्ययन करने पर यह भी स्पष्ट होता है कि उस युग में यदि किसी का कोई उत्तराधिकारी नहीं होता था तो उसकी सम्पत्ति का अधिकारी राजा होता था। भृगु पुरोहित का परिवार दीक्षित हो गया तो राजा ने उसकी सम्पत्ति पर अधिकार करना चाहा, किन्तु महारानी कमलावती ने राजा से निवेदन किया— जैसे वमन किये हुए पदार्थ को खाने वाले व्यक्ति की प्रशंसा नहीं होती, वैसे ही ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को ग्रहण करने वाले की प्रशंसा नहीं हो सकती। वह भी वमन खाने के सदृश है। आचार्य भद्रबाहु ने प्रस्तुत अध्ययन के राजा का नाम 'सीमन्धर' दिया है१४६ तो वादीवैताल शान्तिसूरि ने लिखा है'इषुकार' यह राज्यकाल का नाम है तो 'सीमन्धर' राजा का मौलिक नाम होना संभव है। १४७
हस्तीपालजातक बौद्धसाहित्य का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । उसमें कुछ परिवर्तन के साथ यह कथा उपलब्ध है । हस्तीपालजातक में कथावस्तु के आठ पात्र हैं। राजा ऐसुकारी, पटरानी, पुरोहित, पुरोहित की पत्नी, प्रथम पुत्र हस्तीपाल, द्वितीय पुत्र अश्वपाल, तृतीय पुत्र गोपाल, चौथा पुत्र अजपाल, ये सब मिलाकर आठ पात्र हैं। ये चारों पुत्र न्यग्रोधवृक्ष के देवता के वरदान से पुरोहित के पुत्र होते हैं। चारों प्रव्रजित होना चाहते हैं। पिता उन चारों पुत्रों की परीक्षा करता है। चारों पुत्रों के साथ पिता का संवाद होता है। चारों पुत्र क्रमश: पिता को जीवन की नश्वरता, संसार की असारता, मृत्यु की अविकलता और कामभोगों की मोहकता का विश्लेषण करते हैं। पुरोहित भी प्रव्रज्या ग्रहण करता है। उसके बाद ब्राह्मणी प्रव्रज्या लेती है। अन्त में राजा और रानी भी प्राजित हो जाते हैं।
सरपेन्टियर की दृष्टि से उत्तराध्ययन की कथा जातक के गद्यभाग से अत्यधिक समानता लिए हुए है। वस्तुत: जातक से जैन कथा प्राचीन होनी चाहिए । १४८ डॉ. घाटगे का मन्तव्य है कि जैन कथावस्तु जातककथा से अधिक व्यवस्थित, स्वाभाविकता और यथार्थता को लिए हुए है। जैन कथावस्तु से जातक में संगृहीत कथावस्तु
---उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ३७३
१४६. सीमंधरो य राया..........। १४७. अत्र चेषुकारमिति राज्यकालनाम्ना सीमन्धरश्चेति मौलिकनाम्नेति सम्भावयामः । - बृहद्वृत्ति, पत्र ३९४
8. This legend certainly presents a rather striking resemblance to the prose introduction of the Jataka 509, and must consequently be old. The Uttaradhyayana Sutra, page 332, Foot note No. 2