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उत्तराध्ययन/५०अधिक पूर्ण है। उसमें पुरोहित के चारों पुत्रों के जन्म का विस्तृत वर्णन है। जातक में पुरोहित के चार पुत्रों का उल्लेख है, तो उत्तराध्ययन में केवल दो का। उत्तराध्ययन में राजा और पुरोहित के बीच किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है, जबकि जातक में पुरोहित और राजा का सम्बन्ध है। पुरोहित राजा के परामर्श से ही पुत्रों की परीक्षा लेता है। स्वयं राजा भी उनकी परीक्षा लेने में सहयोग करता है। जैनकथा के अनुसार पुरोहित कुटुम्ब के दीक्षित होने पर राजा सम्पत्ति पर अधिकार करता है। उसका प्रभाव महारानी कमलावती पर पड़ता है और वह श्रमणधर्म को ग्रहण करना चाहती है तथा राजा को भी दीक्षित होने के लिए प्रेरणा प्रदान करती है। जैन कथावस्तु में जो ये तथ्य हैं, वे बहुत ही स्वाभाविक और यथार्थ हैं। जातक कथावस्तु में ऐसा नहीं हो पाया है। जातक कथा में न्यग्रोधवृक्ष के देवता के द्वारा पुरोहित को चार पुत्रों का वरदान मिलता है परन्तु राजा को एक पुत्र का वरदान भी नहीं मिलता है, जबकि राज्य के संरक्षण के लिए उसे एक पुत्र की अत्यधिक आवश्यकता है। इन्हीं तथ्यों के आधार से डॉ. घाटगे उत्तराध्ययन की कथावस्तु को प्राचीन और व्यवस्थित मानते हैं।१४९
प्रस्तुत अध्ययन की कथावस्तु महाभारत के शान्तिपर्व अध्याय १७५ तथा २७७ से मिलती-जुलती है। महाभारत के दोनों अध्यायों का प्रतिपाद्य विषय एक है। केवल नामों में अन्तर है। दोनों अध्यायों में महाराजा युधिष्ठिर भीष्म पितामह से कल्याणमार्ग के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं। उत्तर में भीष्म पितामह प्राचीन इतिहास का एक उदाहरण देते हैं, जिसमें एक ब्राह्मण और मेधावी पुत्र का मधुर संवाद है। पिता ब्राह्मणपुत्र मेधावी से कहता है- वेदों का अध्ययन करो, गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होकर पुत्र पैदा करो, क्योंकि उससे पितरों की सद्गति होगी। यज्ञों को करने के पश्चात् वानप्रस्थाश्रम में प्रविष्ट होना। उत्तर मेधावी ने कहा—संन्यास संग्रहण करने के लिए काल की मर्यादा अपेक्षित नहीं है। अत्यन्त वृद्धावस्था में धर्म नहीं हो सकता। धर्म के लिए मध्यम वय ही उपयुक्त है। किये हुए कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। यज्ञ करना कोई आवश्यक नहीं है। जिस यज्ञ में पशुओं की हिंसा होती है, वह तापस यज्ञ है। तप, त्याग और सत्य ही शान्ति का राजमार्ग है। सन्तान के द्वारा कोई पार नहीं उतरता। धन, जन परिचायक नहीं हैं, इसलिए आत्मा की अन्वेषणा की जाये।
उत्तराध्ययन के और महाभारत के पद्यों में अर्थसाम्य ही नहीं शब्दसाम्य भी है। शब्दसाम्य को देखकर जिज्ञासुओं को आश्यर्च हुए बिना नहीं रह सकता। विस्तारभय से हम यहाँ उत्तराध्ययन की गाथाओं और महाभारत के श्लोकों की तुलना प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। संक्षेप में संकेत मात्र दे रहे हैं।१५० साथ ही उत्तराध्ययन और जातककथा में आये हुए कुछ पद्यों का भी यहाँ संकेत सूचित कर रहे हैं, जिससे पाठकों को तुलनात्मक अध्ययन करने में सहूलियत हो।१५१
१४९. Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. 17 (1935-1936), 'A few parallels in Jain
and Buddhist works', page-343, 344*** १५०. उत्तराध्ययन, अध्य. १४, गाथा-४, महाभारत-शान्तिपर्व, अ. १७५, श्लोक-२३, उत्तरा. अ. १४ गा. ९, महा. शान्ति.
अ. १७५, श्लोक. ६, उत्तरा.१४, गा. १२ महा. शान्ति. अ. १७५, श्लोक-७१, १८, २५,२६,३६; उत्तरा. १४, गा.१५, महाभारत शा. १७५, पू.२०, २१,२२, उ.१४, गा. १७ महा. अ.१७५,पू. ३७,३८, उ.१४ गा.२१, महा. अ.१७५, पू.७, उत्तरा. १४, गा.२२, महा. अ.१७५, श्लोक ८, उ.१४ गा. २३,महा. अ.१७५, श्लोक ९, उत्तरा. १४ गा. २५, महा. अ.
१७५ श्लोक १०,११,१२; उत्तरा. १४ गा.२८, महा. अ. १७५ श्लोक १५; उ. १४ गा. ३७, म. अ. १७ श्लोक ३९. १५१. उत्तरा. अ. १४ गा.९, हस्तीपाल जातक संख्या-५०९. गा. ४; उत्तरा. अ. १४ गा. १२, हस्ती. सं. ५०९ गा. ५; उत्तरा.
अ. १४ गा. १३, हस्ती. सं.५०९ गा. ११, उत्तरा. अ. १४, गा. १५, हस्ती. सं.५०९ गा. १२; उत्तरा. अ. १४ गा. २०, हस्ती. स. ५०९ गा. १०; उत्तरा. अ.,१४ गा.२७, हस्ती. स. ५०९ गा.७; उत्तरा. अ. १४ गा. ३८, हस्ती. स. ५०९ गा. १८; उत्तरा. अ. १४ गा. ४८, हस्ती. सं. ५०९ गा. २०॥