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-उत्तराध्ययन/४८. "चेच्चा दुपयं च चउप्पयं च, खेत्तं गिहं धणधन्नं च सव्वं ।
कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा॥"--उत्तराध्ययनसूत्र १३/२४ तुलना कीजिए
"अन्यो धनं प्रेतगतस्य भुङ्क्ते, वयांसि चाग्निश्च शरीरधातून्।
द्वाभ्यामयं सह गच्छत्यमुत्र, पुण्येन पापेन च चेष्टयमानः॥"-उद्योगपर्व ४०/१७ "तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से, चिईगयं डहिय उ पावगेणं।
भज्जा य पुत्ता वि य नायओ य, दायारमन्नं अणुसंकमन्ति ॥"-उत्तराध्ययनसूत्र १३/२५ तुलना कीजिए
"उत्सृज्य विनिवर्तन्ते, ज्ञातयः सुहृदः सुताः।
अपुष्पानफलान् वृक्षान्, यथा तात! पतित्रिणः॥" -उद्योग. ४०/१७ "अनुगम्य विनाशान्ते, निवर्तन्ते ह बान्धवाः। अग्नौ प्रक्षिप्य पुरुष, ज्ञातयः सुहृदस्तथा ॥"
-शान्ति. ३२१/७४ "अच्चेइ कालो तूरन्ति राइओ, न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा।।
उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी॥"-उत्तराध्ययनसूत्र १३/३१ तुलना कीजिए"अच्चयन्ति अहोरत्ता.........................।
..............॥ -थेरगाथा १४८ सरपेन्टियर ने प्रस्तुत अध्ययन की तीन गाथाओं को अर्वाचीन माना है, किन्तु उसके लिए उन्होने कोई प्रमाण नहीं दिया है। उत्तराध्ययन के चूर्णि व अन्य व्याख्या-साहित्य में कहीं पर भी इस सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों ने ऊहापोह नहीं किया है। ये तीनों गाथाएँ प्रकरण की दृष्टि से भी उपयुक्त प्रतीत होती हैं, क्योंकि इन गाथाओं का सम्बन्ध आगे की गाथाओं से है। यह सत्य है कि प्रारम्भ की तीन गाथाएँ आर्या छन्द में निबद्ध हैं तो आगे की अन्य गाथाएँ अनुष्टप, उपजाति प्रभृति विभिन्न छन्दों में निर्मित हैं। किन्तु छन्दों की पृथक्ता के कारण उन गाथाओं को प्रक्षिप्त और अर्वाचीन मानना अनुपयुक्त है।
इषुकारीय कथा : एक चिन्तन
चौदहवें अध्ययन में राजा इषुकार, महारानी कमलावती, भृगु पुरोहित, यशा पुरोहित-पत्नी तथा भृगु पुरोहित के दोनों पुत्र, इन छह पात्रों का वर्णन है। पर राजा की प्रधानता होने के कारण इस अध्ययन का नाम "इषुकारीय" रखा गया है, ऐसा नियुक्तिकार का मंतव्य है।१४४
श्रमण भगवान् महावीर के युग में अनेक विचारकों की यह धारणा थी कि बिना पुत्र के सद्गति नहीं होती।१४५ स्वर्ग सम्प्राप्त नहीं होता। अतः प्रत्येक व्यक्ति को गृहस्थ-धर्म का पालन करना चाहिए। जिससे
-उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ३६२
१४४. उसुआरनामगोए वेयंतो भावओ अ उसुआरो।
तत्तो समुट्ठियमिणं उसुआरिजंति अज्झयणं॥ १४५. "अपुत्रस्य गति स्ति, स्वर्गो नैव च नैव च।
गृहिधर्मनुष्ठाय, तेन स्वर्ग'गमिष्यति॥"