SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समीक्षात्मक अध्ययन/४७ [३] चित्त का जीव कौशाम्बी में पुरोहित का पुत्र और संभूत का जीव पांचाल राजा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ।१४२ दोनों भाई परस्पर मिलते हैं। चित्त ने संभूत को उपदेश दिया किन्तु संभूत का मन भोगों से मुड़ा नहीं। अत: चित्त ने उसके सिर पर धूल फैंकी और वहाँ से हिमालय की ओर प्रस्थित हो गया। राजा संभूत को वैराग्य हुआ। वह भी उसके पीछे-पीछे हिमालय की ओर चला। चित्त ने उसे योग-साधना की विधि बताई। दोनों ही योग की साधना कर ब्रह्म देवलोक में उत्पन्न हुए। उत्तराध्ययन के प्रस्तुत अध्ययन की गाथाएँ चित्त-संभूत जातक के अन्दर प्रायः मिलती-जुलती हैं। उत्तराध्ययन की कथा विस्तृत है। उसमें अनेक अवान्तर कथाएँ भी हैं। वे सारी कथाएँ ब्रह्मदत्त से सम्बन्धित हैं। जैन दृष्टि से चित्त मुनिधर्म की आराधना कर एवं सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर मुक्त होते हैं। ब्रह्मदत्त कामभोगों में आसक्त बनकर नरकगति को प्राप्त होता है। बौद्धपरम्परा की दृष्टि से संभूत को ब्रह्मलोकगामी बताया गया है। डा. घाटगे का अभिमत है कि जातक का पद्यविभाग गद्यविभाग से अधिक प्राचीन है। गद्यभाग बाद में लिखा गया है। इस तथ्य की पुष्टि भाषा और तर्क के आधार से होती है। तथ्यों के आधार से यह भी सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन की कथावस्तु प्राचीन है। जातक का गद्यभाग उत्तराध्ययन के रचनाकाल से बहुत बाद में लिखा गया है। उसमें पूर्व भवों का सुन्दर संकलन है, किन्तु जैन कथावस्तु में वह छूट गया है।१४३ उत्तराध्ययन के तेरहवें अध्ययन में गाथाएँ आई हैं, उसी प्रकार के भावों की अभिव्यक्ति महाभारत के शान्तिपर्व और उद्योगपर्व में भी हुई है। हम यहाँ उत्तराध्ययन की गाथाओं के साथ उन पद्यों को भी दे रहे हैं, जिससे प्रबुद्ध पाठकों को सहज रूप से तुलना करने में सहूलियत हो। देखिए "जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले। न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मिसहरा भवंति ॥"-उत्तराध्ययन १३/२२ तुलना कीजिये "तं पुत्रपशुसम्पन्नं, व्यासक्तमनसं नरम्। सुप्तं व्याघ्रो मृगमिव, मृत्युरादाय गच्छति ।। सचिन्वानकमेवैनं, कामानामवितृप्तकम्। व्याघ्रः पशुमिवादाय, मृत्युरादाय गच्छति ॥" -शान्ति. १७५/१८, १९ "न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ॥" - उत्तराध्ययनसूत्र १३/२३ तुलना कीजिए "मृतं पुत्रं दुःखपुष्टं मनुष्या उत्क्षिप्य राजन् ! स्वगृहान्निर्हरन्ति। तं मुक्तकेशाः करुणं रुदन्ति चितामध्ये काष्ठमिव क्षिपन्ति ॥" -उद्योग. ४०/१५ "अग्नौ प्रास्तं तु पुरुषं, कर्मान्वेति स्वयं कृतम्।"-उद्योग. ४०/१८ १४२. जातक, संख्या ४९८, चतुर्थ खण्ड, पृष्ठ ६०० १४३. Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. 17 (1935-1936): A few Parallels in Jain and Buddhist works, P. 342-343, By AM. Ghatage, M.A.
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy