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________________ उत्तराध्ययन/४६. उत्तराध्ययन के बारहवें अध्ययन की अनेक गाथाओं का ही रूप मातंग जातक की अनेक गाथाओं में ज्यों का त्यों मिलता है ।१३८ डा. घाटगे का मानना है कि बौद्ध परम्परा की कथा-वस्तु विस्तार के साथ लिखी गई है। उसमें अनेक विचारों का सम्मिश्रण हुआ है। जबकि जैनपरम्परा की कथा-वस्तु में अत्यन्त सरलता है तथा हृदय को छूने की विशेषता रही हुई है। इससे यह स्पष्ट है कि बौद्ध कथावस्तु से जैन कथावस्तु प्राचीन है। मातंग जातक में ब्राह्मणों के प्रति तीव्र रोष व्यक्त किया गया है। ब्राह्मणों को अपराध हो जाने से झूठन खाने के लिए उत्प्रेरित करना और उन्हें धोखा देना, ये ऐसे तथ्य हैं जो साम्प्रदायिक भावना के प्रतीक हैं।१३९ पर जैन कथा में मानवता और सहानुभूति रही हुई है।१४० चित्त और संभूत तेरहवें अध्ययन में चित्त और संभूत के पारस्परिक सम्बन्ध और विसम्बन्ध का वर्णन है। इसलिए इस अध्ययन का नाम नियुक्तिकार भद्रबाहु ने 'चित्रसंभूतीय' लिखा है। ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति से अध्ययन का प्रारम्भ होता है। व्याख्या-साहित्य में सम्पूर्ण कथा विस्तार के साथ दी गई है। चित्र और संभूत पूर्व भव में भाई थे। चित्र का जीव पुरिमताल नगर में सेठ का पुत्र हुआ और मुनि बना। संभूत का जीव ब्रह्म राजा का पुत्र ब्रह्मदत्त बना। चित्र का जीव जो मुनि हो गया था, ब्रह्मदत्त को संसार की असारता बताकर श्रामण्यधर्म स्वीकार करने के लिए प्रेरणा देता है पर ब्रह्मदत्त भोगों में अत्यन्त आसक्त था। अत: उसे उपदेश प्रिय नहीं लगा। पांचवीं, छठी और सातवीं गाथा में उनके पूर्व जन्मों का उल्लेख हुआ है। आचार्य नेमिचन्द्र ने सुखबोधावृत्ति में उनके पूर्व के पांच भवों का विस्तार से वर्णन किया है।९४१ बौद्ध जातकसाहित्य में भी यह कथा प्रकारान्तर से मिलती है। तथागत बुद्ध ने जन्म-जन्मान्तरों तक परस्पर मैत्रीभाव रहता है, यह बताने के लिए यह कथा कही थी। उज्जयिनी के बाहर चाण्डाल ग्राम था। बोधिसत्व ने भी वहाँ जन्म ग्रहण किया था और दूसरे एक प्राणी ने भी वहाँ जन्म लिया था। उनमें से एक का नाम चित्त था और दूसरे का नाम संभूत था। वहाँ पर उनके जीवन के सम्बन्ध में चिन्तन है। उनके तीन पूर्व भवों का भी उल्लेख है। जो इस प्रकार है [१] नरेञ्जरा सरिता के तट पर हरिणी की कोख से उत्पन्न होना। [२] नर्मदा नदी के किनारे बाज के रूप में उत्पन्न होना। १३८. धर्मकथानुयोग : एक सांस्कृतिक अध्ययन, लेखक-देवेन्द्रमुनि शास्त्री १३९. Annals fo the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. 17(1935, 1936) 'A few Parallels in Jains and Buddhist works', Page 345, by A.M. Ghatage, M.A. This must have also led the writer to include the other story in the same Jataka. And such an attitude must have arisen in later times as the effect of sectarion bias. १४० Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol 17 (1935-1936) 'A few Parallels in Jain and Buddhist works', Page 345, By A.M. Ghatage, M.A. १४१. आसिमो भायरा दो वि, अन्नमन्नवसाणुगा। अन्नमन्नमणूरत्ता, अन्नमन्नहिएसिणो। दासा दसण्णे आसी मिया कालिंजरे नगे। हंसा मयंगतीरे, सोवागा कासिभूमिए ।। देवा य देवलोगम्मि, आसि अम्हे महिड्ढिया। इमा नो छट्ठिया जाई, अन्नमन्नेण जा विणा ।। - उत्तराध्ययनसूत्र, १३/५-७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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