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चौवीसवाँ अध्ययन : प्रवचनमाता
३९३ समिति का उपसंहार और गुप्तियों का प्रारम्भ
१९. एयाओ पंच समिईओ समासेण वियाहिया।
एत्तो य तओ गुत्तीओ वोच्छामि अणुपुव्वसो॥ १९] ये पांच समितियाँ संक्षेप में कही गई हैं, अब यहाँ से तीन गुप्तियों के विषय में क्रमशः कहूँगा। मनोगुप्ति : प्रकार और विधि
२०. सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य।
चउत्थी असच्चमोसा मणगुत्ती चउव्विहा॥ [२०] मनोगुप्ति चार प्रकार की है-(१) सत्या (सच), (२) मृषा (झूठ) तथा (३) सत्यामृषा (सच और झूठ मिश्रित) और चौथी (४) असत्यामृषा (जो न सच है, न झूठ है केवल लोकव्यवहार है)।
२१. संरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेव य।
मणं पवत्तमाणं तु नियत्तेज जयं जई॥ [२१] यतनावान् यति (मुनि) संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होते हुए मन का निवर्तन करे।
विवेचन–चतुर्विध मनोगुप्तियों का स्वरूप—(१) सत्य मनोगुप्ति—मन में सत् (सत्य) पदार्थ के चिन्तनरूप मनोयोग सम्बन्धी गुप्ति। जैसे—जगत् में जीव तत्त्व है, यो सत्य पदार्थ का चिन्तन। (२) असत्य मनोगुप्ति-असत्पदार्थ के चिन्तनरूप मनोयोग सम्बन्धी गुप्ति । यथा-जगत् में जीवतत्त्व नहीं है। (३) सत्यामृषा मनोगुप्ति-सत् और असत् दोनों के चिन्तनरूप मनोयोग सम्बन्धी गुप्ति । यथा-आम्र आदि विविध वृक्षों का वन देख कर, यह आम्र का वन है, ऐसा चिन्तन करना। (४)असत्यामुषा मनोगुप्ति-जो चिन्तन सत्य भी न हो, असत्य भी न हो। यथा—देवदत्त ! घडा ले आए. इत्यादि आदेश-निर्देशात्मक वचन का मन में चिन्तन करना।
मनोगप्ति के लिए मन को तीन के चिन्तन से हटाना-प्रस्तुत गाथा २१ में शास्त्रकार ने कहा है, यदि मनोगुप्ति करना चाहते हो तो मन को संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ, इन तीनों में प्रवृत्त होने से रोको, किसी शुभ या शुद्ध संकल्प में मन को प्रवृत्त करो। (१) सरंम्भ-अशुभ संकल्प करना । जैसे—'मैं ऐसा ध्यान करूं, जिससे वह मर जाएगा, या मरे।' (२) समारम्भ- परपीडाकारक उच्चाटनादि से सम्बन्धित ध्यान को उद्यत होना। जैसे—मैं अमुक को उच्चाटन आदि करके पीड़ा पहुँचाऊँगा या पहुँचाऊँ, जिससे उसका उच्चाटन हो जाए। (३) आरम्भ-दूसरों के प्राणों को नष्ट कर सकने वाले अशुभ परिणाम करना। ऐसे अशुभ में प्रवर्त्तमान मन को अशुभ से हटा कर आगमोक्त विधि अनुसार शुभ में प्रवृत्त करे। वचनगुप्ति : प्रकार और विधि
२२. सच्चा तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य।
चउत्थी असच्चमोसा वइगुत्ती चउव्विहा॥
१. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा.२, पत्र १९४
२. वही भा.२, पत्र १९४