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उत्तराध्ययनसूत्र
[२२] वचनगुप्ति के चार प्रकार हैं— (१) सत्या, (२) मृषा, तथा (३) सत्यामृषा और (४) असत्यामृषा। २३. संरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई ॥ [२३] यतनावान् यति (मुनि) संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ (रोके और शुभ में प्रवृत्त करे ) ।
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विवेचन—–सत्या आदि चारों वचनगुप्तियों का स्वरूप – मनोगुप्ति की तरह ही समझना चाहिए। अन्तर इतना ही है कि मनोगुप्ति में मन में चिन्तन है, जब कि वचनगुप्ति में वचन से बोलना है।
प्रवर्त्तमान वचन का निवर्त्तन करे
वचनगुप्ति के लिए तीन से वचन को हटाना —संरम्भ-दूसरे का विनाश करने में समर्थ मंत्रादि गिनने के संकल्प के सूचक शब्द बोलना । समारम्भ——- परपीड़ाकारक मंत्रादि जपने को उद्यत होना और आरम्भ-दूसरे को विनष्ट करने के कारणरूप मंत्रादि का जाप करना। इन तीनों प्रकार के वचनों से अपनी जिह्वा को रोके और तत्काल शुभवचन में प्रवृत्त करे ।
कायगुप्ति : प्रकार और विधि
२४. ठाणे निसीयणे चेव तहेव य तुयट्टणे । उल्लंघण - पल्लंघणे इन्दियाण य जुंजणे ॥
[२४] खड़े होने में, बैठने में, त्वग्वर्त्तन - ( करवट बदलने या लेटने) में तथा उल्लंघन (खड्डा, खाई वगैरह लांघने) में प्रलंघन (सीधा चलने-फिरने) में और इन्द्रियों के ( शब्दादि विषयों के) प्रयोग में (प्रवर्त्तमान मुनि कायगुप्ति करे। वह इस प्रकार — ) ।
२५.
संरम्भ-समारम्भे आरम्भम्मि तहेव य । कायं पवत्तमाणं तु नियत्तेज्ज जयं जई ॥
[२५] यतनावान् यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त होती हुई काया का निवर्त्तन करे ।
विवेचन - कायगुप्ति के लिए संरम्भादि से काया को रोकना आवश्यक — संरम्भ का अर्थ यद्यपि संकल्प होता है, तथापि यहाँ उपचार से अर्थ होता है— मारने के लिए मुक्का तानना, लाठी उठाना, अर्थात् किसी को मारने के लिए उद्यत होना। समारम्भ-लात, मुक्का आदि से मारना, चोट पहुँचाना तथा आरम्भ — प्राणियों के वध के लिए लाठी, तलवार आदि का उपयोग करना। काया जब संरम्भादि में से किसी में प्रवृत्त हो रही हो, तभी उसे रोकना कायगुप्ति है । ३
समिति और गुप्ति में अन्तर ---
२६. (एथाओ पंच समिईओ चरणस्स य पवत्तणे ।
गुत्ती नियत्तणे वृत्ता असुभत्थेसु सव्वसो ॥
१.
(क) उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९९० २. (क) उत्तरा गुजराती भाषान्तर भाग २, पत्र १९४
३.
उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९९३
(ख) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर भा. २, पत्र १९४ (ख) उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९९१