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उत्तराध्ययनसूत्र
[१५] उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, सिंघानक, जल्ल, आहार, उपधि, शरीर तथा अन्य इस प्रकार की परिष्ठापन- योग्य वस्तु का विवेकपूर्वक स्थण्डिलभूमि में उत्सर्ग करे ।
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१६. अणावायमसंलोह अणावाए चैव होइ संलोए । आवायमसंलोए आवाए चेय संलोए ॥
[१६] स्थण्डिलभूमि चार प्रकार की होती है - ( १ ) अनापात - असंलोक, (२) अनापात -संलोक, (३) आपात असंलोक और (४) आपात -संलोक ।
१७. अणावायमसंलोए
परस्सऽणुवघाइए। समे अज्झसिरे यावि अचिरकालकयंमि य ॥
१८. वित्थण्णे दूरमोगाढे नासन्ने बिलवज्जिए ।
तसपाण - बीयरहिए उच्चाराईणि वोसिरे ॥
[१७-१८] जो भूमि (१) अनापात - असंलोक हो, (२) उपघात (दूसरे के और प्रवचन के उपघात) से रहित हो, (३) सम हो, (४) अशुषिर (पोली नहीं) हो तथा (५) कुछ समय पहले ही (दाहादि से) निर्जीव हुई हो, (६) जो विस्तृत हो, (७) गाँव (बस्ती), बगीचे आदि से दूर हो, (८) बहुत नीचे (चार अंगुल तक) अचित्त हो (९) बिल से रहित हो तथा (१०) त्रस प्राणी और बीजों से रहित हो, ऐसी (१० विशेषताओं वाली) भूमि में उच्चार (मल) आदि का विसर्जन करे ।
विवेचन उच्चार आदि पदों के विशेषार्थ — उच्चार — मल, प्रस्त्रवण — मूत्र, खेल — श्लेष्म - कफ, सिंघाण—नाक का मैल (लींट), जल्ल-शरीर का मैल, पसीना, आहार (परिष्ठापन योग्य), उपकरण ( (उपधि) और शरीर (मृत शव) तथा अन्य — भुक्त शेष अन्न-जल ( ऐंठवाड़) या टूटे पात्र, फटे हुए वस्त्र आदि का विवेक स्थण्डिलभूमि में व्युत्सर्ग करे।
अनापात- अंसलोक आदि चतुर्विध स्थण्डिलभूमि - ( १ ) अनापात - असंलोक — जहाँ लोगों का आवागमन न हो तथा दूर से भी वे न दीखते हों, (२) अनापात -संलोक— जहाँ लोगों का आवागमन न हो, किन्तु लोग दूर से दीखते हों, (३) आपात असंलोक — लोगों का जहाँ आवागमन हो, किन्तु वे दीखते न हों और (४) आपात-संलोक—जहाँ लोगों का आवागमन भी हो, और वे दिखाई भी देते हों। इन चारों प्रकार की स्थण्डिलभूमियों में से प्रथम प्रकार की अनापात - असंलोक भूमि ही विसर्जन योग्य होती है। २
अचिरकालकiमि — इसका अर्थ है कि स्वल्पकाल पूर्व दग्ध स्थानों में मलादि विसर्जन करे । बृहद्वृत्तिकार इसका आशय बताते हैं कि स्वल्पकाल पूर्व जो स्थान दग्ध होता है, वह सर्वथा अचित्त (निर्जीव) होता है, जो चिरकालदग्ध होते हैं, वहाँ पृथ्वीकायादि के जीव पुन: उत्पन्न हो जाते हैं । ३
१. उत्तरा (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र १९२
२. (क) उत्तरा (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र १९३ (ख) उत्तरा (साध्वी चन्दना), पृ. २५४ ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५१८
(ख) उत्तरा (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र १९३