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________________ चौवीसवाँ अध्ययन : प्रवचनमाता ३८९ [५] (इन चारों में) ईर्यासमिति का आलम्बन—ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र है, काल से—दिवस ही विहित है और मार्ग-उत्पथ का वर्जन है। ६. दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा। जयणा चउव्विहा वुत्ता तं मे कित्तयओ सुण॥ । [६] द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से यतना चार प्रकार की कही गई है। उसे मैं कह रहा हूँ, सुनो। ७. दव्वओ चक्खुसा पेहे जुगमित्तं च खेत्तओ। कालओ जाव रीएज्जा उवउत्ते य भावओ॥ [७] द्रव्य (की अपेक्षा) से नेत्रों से (गन्तव्य मार्ग को) देखे, क्षेत्र से—युगप्रमाण भूमि को देखे, काल से—जब तक चलता रहे, तब तक देखे और भाव से—उपयोगपूर्वक गमन करे। ८. इन्दियत्थे विवज्जित्ता सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ती तप्पुरकारे उवउत्ते इरियं रिए॥ [८] (गमन करते समय) इन्द्रिय-विषयों और पांच प्रकार के स्वाध्याय को छोड़ कर, केवल गमनक्रिया में ही तन्मय होकर, उसी को प्रमुख (आगे)' करके (महत्त्व देकर) उपयोगपूर्वक गति (ईर्या) करे। विवेचन–चार प्रकार की परिशुद्धि क्यों?—ईर्यासमिति की परिशुद्धि के लिए जो चार प्रकार बताए हैं, उनका आशय यह है कि मुनि निरुद्देश्य गमनादि प्रवृत्ति न करे। वह किसलिए गमन करे? कब गमन करे? किस क्षेत्र से गमन करे? और किस विधि से करे? ये चारों भाव ईर्या के साथ लगाये। तभी परिशुद्धि हो सकती है। वह ज्ञान, दर्शन अथवा चारित्र के उद्देश्य से गमन करे। दिन में ही गमन करे, रात्रि में ईर्याशुद्धि नहीं हो सकती। रात्रि में बड़ी नीति, लघुनीति परिष्ठापन के लिए गमन करना पड़े तो प्रमार्जन करके चले। मार्ग सेउन्मार्ग को छोड़कर गमन करे, क्योंकि उन्मार्ग पर जाने से आत्मविराधना आदि दोष संभव हैं । यतना चार प्रकार की है-द्रव्य से नेत्रों से देख भाल कर गमन करे। क्षेत्र से युगमात्र भूमि देख कर चले। काल से जहाँ तक चले, देख कर चले तथा भाव से उपयोगसहित चले। जुगमित्तं तु खेत्तओ-युगमात्र का विलोकन-युग का अर्थ है-गाड़ी का जुआ। गाड़ी का जुआ पीछे विस्तृत और प्रारम्भ में संकड़ा होता है, वैसी ही साधु की दृष्टि हो । युग लगभग ३॥ हाथ प्रमाण लम्बा होता है, इसलिए मुनि ३॥ हाथ प्रमाण भूमि देख कर चले। दस बोलों का वर्जन-इन्द्रियों के शब्दादि पांच विषयों को तथा वाचना आदि पांच प्रकार के स्वाध्याय को-यानी इन दस बोलों को छोड़ कर गमन करे। गमन के समय स्वाध्याय भी वर्ण्य कहा गया है। क्योंकि स्वाध्याय में उपयोग लगाने से मार्ग संबंधी उपयोग नहीं रह सकता। दो उपयोग एक साथ होते नहीं हैं। १. (क) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र १९० (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९७६ २. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९७५-९७६ (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. २, पत्र १९० ३. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९७६
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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