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________________ ३८८ उत्तराध्ययनसूत्र वचनगुप्ति-बोलने के प्रत्येक प्रसंग पर या तो वचन पर नियंत्रण रखना या मौन धारण करना । कायगुप्तिकिसी भी वस्तु के लेने, रखने या उठने-बैठने या चलने-फिरने आदि में कर्त्तव्य का विवेक हो; इस प्रकार शारीरिक व्यापार का नियमन करना। समिति और गुप्ति में अन्तर–समिति में सक्रिया की मुख्यता है, जबकि गुप्ति में असत् क्रिया के निषेध की मुख्यता है। समिति में नियमतः गुप्ति होती है, क्योंकि उसमें शुभ में प्रवृत्ति के साथ जो अशुभ से निवृत्तिरूप अंश है, वह नियमतः गुप्ति का अंश है। गुप्ति में प्रवृत्तिप्रधान समिति की भजना है। आठों को 'समिति' क्यों कहा गया है?—गा. ३ में इन आठों को (एयाओ अट्ठसमिईओ) समिति कहा गया है। इसका कारण बृहद्वृत्ति में बताया गया है कि गुप्तियाँ प्रवीचार भौर अप्रवीचार दोनों रूप होती हैं । अर्थात् गुप्तियाँ एकान्त निवृत्तिरूप ही नहीं, प्रवृत्तिरूप भी होती हैं । अतः प्रवृत्तिरूप अंश की अपेक्षा से उन्हें भी समिति कह दिया है। द्वादशांगरूप जिनोक्त प्रवचन इनके अन्तर्गत—इन आठ समितियों में द्वादशांगरूप प्रवचन समाविष्ट हो जाता है, ऐसा कहने का कारण यह है कि समिति और गुप्ति दोनों चारित्ररूप हैं तथा चारित्र ज्ञान-दर्शन से अविनाभावी है। वास्तव में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अतिरिक्त अन्य कोई अर्थतः द्वादशांग नहीं है। इसी दृष्टि है यहाँ चारित्ररूप समिति-गुप्तियों में प्रवचनरूप द्वादशांग अन्तर्भूत कहा गया है। अट्ठपवयणमायाओ-पांच समिति और तीन गुप्ति, ये आठों प्रवचन-माताएँ इसलिए कही गई हैं कि इन से द्वादशांगरूप प्रवचन का प्रसव होता है। इसलिए ये द्वादशांगरूप प्रवचन की माताएँ हैं, साथ ही ये प्रवचन के आधारभूत संघ (चतुर्विध संघ) की भी माताएँ हैं। इस दृष्टि से 'मात' और 'माता' ये दो विशेषण यहाँ समिति गुप्तियों के लिए प्रयुक्त हैं। और इन का आशय ऊपर दे दिया गया है। चार कारणों से परिशुद्ध : ईर्यासमिति ४. आलम्बणेण कालेण मग्गेण जयणाइ य। चउकारणपरिसुद्धं संजए इरियं रिए॥ _ [४] संयमी साधक आलम्बन, काल, मार्ग और यतना, इन चार कारणों से परिशुद्ध ईर्या (गति) से विचरण करे। ५. तत्थ आलंबणं नाणं दंसणं चरणं तहा। काले य दिवसे वुत्ते मग्गे उप्पहवजिए॥ १. 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः। -तत्त्वार्थ. अ. ९ सू. ४, (पं. सुखलालजी) पृ. २०७ २. (क) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) टिप्पणी, पृ. ४४३ (ख) उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र ५१४: 'समिओ णियमा गुत्तो, गुत्तो समियतणंसि भइयव्यो।' ३. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९७४ (ख) 'दुवालसंगं जिणक्खायं मायं जत्थ उ पवयणं।' -उत्तरा-मूल अ. २४.भा-३ ४. (क) प्रवचनस्य द्वादशांगस्य तदाधारस्य वा संघस्य मातर इव प्रवचनमातरः।' -समवायांगवृत्ति, समवाय ८ (ख) 'एया प्रवयणमाया दुवालसंगं पसूयातो।' -बृहद्वृत्ति, पत्र ५१४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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