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उत्तराध्ययनसूत्र भाषासमिति
९. कोहे माणे य मायाए लोभे य उवउत्तया।
___हासे भए मोहरिए विगहासु तहेव य॥ [७] क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, मौखर्य और विकथाओं के प्रति सतत उपयोगयुक्त होकर रहे।
१०. एयाइं अट्ठ ठाणाइं परिवजित्तु संजए।
असावजं मियं काले भासं भासेज्ज पनवं॥ [१०] प्रज्ञावान् संयमी साधु इन आठ (पूर्वोक्त) स्थानों को त्यागकर उपयुक्त समय पर निरवद्य(दोषरहित) और परिमित भाषा बोले।
विवेचन असावजं असावद्य अर्थात्-पाप (-दोष) रहित निरवद्य।
क्रोधादिवश बोलने का निषेध–जब क्रोधादि के वश या क्रोध आदि के आवेश में बोला जाता है, तब प्राय: शुभ भाषा नहीं बोली जाती, अतएव बोलते समय क्रोधादि के आवेश का त्याग करना चाहिए। एषणाशुद्धि के लिए एषणा समिति
११. गवसणाए गहणे य परिभोगेसणा य जा।
आहारोवहि-सेजाए एए तिन्नि विसोहए॥ [११] गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा से आहार, उपधि और शय्या, इन तीनों का परिशोधन
करे।
१२. उग्गमुप्पायणं पढमे बीए सोहेज एसणं।
परिभोयंमि चउक्कं विसोहेज जयं जई॥ [१२] यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला संयत, प्रथम एषणा (आहारादि की गवेषणा) में उद्गम और उत्पादना संबंधी दोषों का शोधन करे। दूसरी एषणा (ग्रहणैषणा) में आहारादि ग्रहण करने से सम्बन्धित दोषों का शोधन करे तथा परिभोगैषणा में दोषचतुष्टय का शोधन करे।
विवेचन-गवेसणा-गाय की तरह एषणा अर्थात् शुद्ध आहार की खोज (तलाश) करना।
ग्रहणैषणा—ग्रहणा का अर्थ है विशुद्ध आहार लेना, अथवा आहर ग्रहण के सम्बन्ध में एषणा अर्थात् विचार ग्रहणैषणा कहलाती है।
परिभोगेषणा–परिभोग का अर्थ है-भोजन के मण्डल में बैठकर भोजन का उपभोग (सेवन) करते समय की जाने वाली एषणा।
तीनों एषणाएँ : तीन विषय में-पूर्वोक्त तीनों एषणाएँ केवल आहार के विषय में ही शोधन नहीं करनी है, अपितु आहार, उपधि (वस्त्र-पात्रादि) और शय्या (उपाश्रय, संस्तारक आदि), इन तीनों के विषय में शोधन करनी हैं।
१. उत्तरा (गुजराती भाषान्तर) भा. २, पत्र १९१