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उत्तराध्ययनसूत्र
८१. अत्थि एगं धुवं ठाणं लोगग्गंमि दुरारुहं।
जत्थ नत्थि जरा मच्चू वाहिणो वेयणा तहा॥ [८१] (गणधर गौतम)—लोक के अग्रभाग में एक ऐसा ध्रुव (अचल) स्थान है, जहाँ जरा (बुढ़ापा), मृत्यु, व्याधियाँ तथा वेदनाएँ नहीं हैं; परन्तु वहाँ पहुँचना दुरारुह (बहुत कठिन) है।
८२. ठाणे य इइ के वुत्ते? केसी गोयममब्बवी।
केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी॥ [८२] (केशी कुमारश्रमण)—वह स्थान कौन-सा कहा गया है? - केशी ने गौतम से पूछा । केशी के इस प्रकार पूछने पर गौतम ने यह कहा
८३. निव्वाणं ति अबाहं ति सिद्धी लोगग्गमेवय।
खेमं सिवं अणाबाहं जं चरन्ति महेसिणो॥ ८४. तं ठाणं सासयं वासं लोगग्गमि दुरारुहं।
जं संपत्ता न सोयन्ति भवोहन्तकरा मुणी। - [८३-८४] (गणधर गौतम)—जिस स्थान को महामुनि जन ही प्राप्त करते हैं, वह स्थान निर्वाणा, अबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और अनाबाध (इत्यादि नामों से प्रसिद्ध) है। भवप्रवाह का अन्त करने वाले महामुनि जिसे प्राप्त कर शोक से मुक्त हो जाते हैं, वह स्थान लोक के अग्रभाग में है, शाश्वतरूप से (मुक्त जीव का) वहाँ वास हो जाता है, जहाँ पहुँच पाना अत्यन्त कठिन है।
विवेचन-खेमं सिवं अणाबाहं : क्षेमं—व्याधि आदि से रहित, शिवं—जरा, उपद्रव से रहित, अनाबाधं-शत्रुजन का अभाव होने से स्वाभाविक रूप से पीड़ारहित।
दुरारुहं—जो स्थान दुष्प्राप्य हो, जहाँ पर आरूढ होना कठिन हो। वाहिणो—वात, पित्त, कफ आदि से उत्पन्न रोग। सासयं : शाश्वत-स्थायी निवास वाला स्थान । निव्वाणं : निर्वाण-जहाँ संताप के अभाव के कारण जीव शान्तिमय हो जाता है। अबाहं : अबाध–जहाँ किसी प्रकार की भय आदि बाधा न हो। सिद्धी-जहाँ संसार-परिभ्रमण का अन्त हो जाने से समस्त प्रयोजन सिद्ध होते हैं।
१. (क) क्षेम-व्याध्यादिरहितम् शिवं-जरोपद्रवरहितं, अनाबाधं-शत्रुजनाभावात् स्वभावेन पीडारहितम्।
(ख) दुःखेन आरुह्यते यस्मिन् तत् दुरारोह, दुष्प्राप्यमित्यर्थः। (ग) वाहिणी-व्याधयः वातपित्तकफश्लेष्मादयः। (घ) शाश्वतं-सदातनं, वास:-स्थानम्। (ग) निर्वान्ति संतापस्याभावात् शीतीभवन्ति जीवा अस्मिन्निति निर्वाणम्। (घ) न विद्यते बाधा यस्मिन् तदबाधम्-निर्भयम्। (ड) सिध्यन्ति समस्तकार्याणि भ्रमणाभावात् यस्यां सा-सिद्धिः। -उत्तरा. वृत्ति, अ. रा. को. भा. ३, पृ. ९६६