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तेईसवाँ अध्ययन : केशी- गौतमीय
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[५९] (केशी कुमार श्रमण ) - गौतम ! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । आपने मेरा यह संशय दूर कर दिया, (किन्तु) मेरा एक संशय और भी है, गौतम ! उसके सम्बन्ध में मुझे बताइए।
६०. कुप्पहा बहवो लोए जेहिं नासन्ति जंतवो । अद्धा कह वट्टन्ते तं न नस्ससि ? गोयमा ! ।।
[६०] गौतम ! संसार में अनेक कुपथ हैं, जिन ( पर चलने) से प्राणी भटक जाते हैं। सन्मार्ग पर चलते हुए आप कैसे नहीं भटके — भ्रष्ट हुए?
६१. जे य मग्गेण गच्छन्ति जे य उम्मग्गपट्ठिया ।
ते सव्वे विझ्या मज्झं तो न नस्सामहं मुणी ! ॥
[६१] (गौतम गणधर ) – मुनिवर ! जो सन्मार्ग पर चलते हैं और जो लोग उन्मार्ग पर चलते हैं, वे सब मेरे जाने हुए हैं। इसलिए मैं भ्रष्ट नहीं होता हूँ ।
६२.
मग्गे य इइ के वुत्ते ? केसी गोयममब्बवी । केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी ।।
[६२] (केशी कुमारश्रमण ) - केशी ने गौतम से पुन: पूछा—' मार्ग किसे कहा गया है?' केशी इस प्रकार पूछने पर गौतम ने यह कहा—
६३. कुप्पवयण —पासण्डी सव्वे उम्मग्गपट्ठिया । सम्मग्गं तु जिणक्खायं एक मग्गे हि उत्तमे ।।
[६३] ( गणधर गौतम ) — कुप्रवचनों (मिथ्यादर्शनों) को माननेवाले सभी पाषण्डी- ( व्रतधारी लोग) उन्मार्गगामी हैं, सन्मार्ग तो जिनेन्द्र — वीतराग द्वारा कथित है और यही मार्ग उत्तम है।
विवेचन — जेहिं नासंति जंतवो—यहाँ कुपथ का अर्थ धर्म-सम्प्रदाय विषयक कुमार्ग है। जिन कुमार्गों पर चलकर बहुत-से लोग दुर्गतिरूपी अटवी में जा कर भटक जाते हैं, अर्थात् — मार्गभ्रष्ट हो जाते हैं । गौतम ! आप उन कुमार्गों से कैसे बच जाते हो? १
सव्वे ते वेड्या मज्झ – इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि 'मैंने सन्मार्ग और कुमार्ग पर चलने वालों को भलीभांति जान लिया है। सन्मार्ग और कुमार्ग का ज्ञान मुझे हो गया है। इसी कारण मैं कुमार्ग से बचकर, सन्मार्ग पर चलता हूँ। मैं मार्गभ्रष्ट नहीं होता।'
कुप्पवयण पासंडी — कुत्सित प्रवचन अर्थात् दर्शन कुप्रवचन हैं, क्योंकि उनमें एकान्तकथन तथा हिंसादि का उपदेश है। उन कुप्रवचनों के अनुगामी पाषण्डी (पाखण्डी) अर्थात् — व्रती अथवा एकान्तवादी
जन । २
सम्मग्गं तु जिणक्खायं — वीतराग द्वारा प्ररूपित मार्ग ही सन्मार्ग है, क्योंकि इसका मूल दया और विनय है, इसलिए यह सर्वोत्तम है । ३
१. बृहद्वृत्ति, अ. रा. कोष भा. ३, पृ. ९६४
२. वही, पृ. ९६४ : कुत्सितानि प्रवचनानि कुप्रवचनानि - कुदर्शनानि तेषु पाखण्डिनः — कुप्रवचनपाखण्डिनः एकान्तवादिनः । ३. वही, पृ. ९६४ : जिनोक्त, सर्वमार्गेषु उत्तमः – दयाविनयमूलत्वादित्यर्थः ।