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________________ तेईसवाँ अध्ययन : केशी-गौतमीय ३७५ और जब वह फल देती है तो वे फल विषाक्त होते हैं; क्योंकि तीव्र तृष्णा परिवार में या समाज में विषम , परिणाम लाती है, इसलिए तृष्णापरायण मनुष्य को उसके विषैले फल भोगने पड़ते हैं। भवतण्हा- संसारविषयक तृष्णा—लोभ प्रकृति ही लता है। छठा प्रश्नोत्तर : कषायाग्नि बुझाने के सम्बन्ध में ४९. साहु गोयम! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो। अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा!।। [४९] (केशी कुमारश्रमण) —हे गौतम! आपकी बुद्धि श्रेष्ठ है। आपने इस संशय को मिटाया है। एक दूसरा संशय भी मेरे मन में है, गौतम! उस विषय में भी आप मुझे बताओ। ५०. संपजलिया घोरा अग्गी चिट्ठइ गोयमा!। जे डहन्ति सरीरत्था कहं विज्झाविया तुमे?॥ [५०] गौतम! चारों ओर घोर अग्नियाँ प्रज्वलित हो रही हैं, जो शरीरधारी जीवों को जलाती रहती हैं, आपने उन्हें कैसे बुझाया? ५१. महामेहप्पसूयाओ गिज्झ वारि जलुत्तमं। सिंचामि सययं देहं सित्ता नो व डहन्ति मे।। [५१] (गणधर गौतम) –महामेघ से उत्पन्न सब जलों में उत्तम जल लेकर मैं उसका निरन्तर सिंचन करता हूँ। इसी कारण सिंचन -शान्त की गई अग्नियाँ मुझे नहीं जलातीं। ५२. अग्गी य इइ के वुत्ता? केसी गोयममब्बवी। केसिमेवं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।। [५२] (केशी कुमारश्रमण—) "वे अग्नियाँ कौन-सी हैं?" —केशी ने गौतम से पूछा । केशी के यह पूछने पर गौतम ने इस प्रकार कहा - ५३. कसाया अग्गिणो वुत्ता सुय-सील-तवो जलं। सुयधाराभिहया सन्ता भिन्ना हु न डहन्ति मे।। ___ [५३] (गणधर गौतम)-कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) ही अग्नियाँ कही गई हैं। श्रुत, शील और तप जल है। श्रुत -(शील-तप) रूप जलधारा से शान्त और नष्ट हुईं अग्नियाँ मुझे नहीं जलातीं। विवेचन–महामेहप्पसूयाओ—महामेघ से प्रसूत, अर्थात् महामेघ के समान जिनप्रवचन से उत्पन्न श्रुत, शील और तपरूप जल से मैं कषायाग्नि को सींचकर शान्त करता हूँ। १. बृहवृत्ति,अभिधान रा. कोष भा. ३, पृ. ९६२ २. (क) बृहद्वृत्ति, अ. रा. कोष भा. ३, पृ. ९६४ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९४१
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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