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________________ ३७० उत्तराध्ययनसूत्र [३१] (गौतम गणधर)-केशी के इस प्रकार कहने पर गौतम ने यह कहा-(सर्वज्ञों ने) विज्ञान (केवलज्ञान) से भलीभांति यथोचितरूप से धर्म के साधनों (वेष, चिह्न आदि उपकरणों) को जान कर ही उनकी अनुमति दी है। ३२. पच्चयत्थं च लोगस्स नाणाविहविगप्पणं। जत्तत्थं गहणत्थं च लोगे लिंगप्पओयणं।। - [३२] नाना प्रकार के उपकरणों का विकल्पन (विधान) लोगों (जनता) की प्रतीति के लिए है, संयमयात्रा के निर्वाह के लिए है और 'मैं साधु हूँ'; यथाप्रसंग इस प्रकार के बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग (वेष) का प्रयोजन है। ३३. अह भवे पइन्ना उ मोक्खसब्भूयसाहणे। नाणं च दंसणं चेव चरित्तं चेव निच्छए। [३३] निश्चयदृष्टि से तो सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष के वास्तविक (सद्भूत) साधन हैं। इस प्रकार का एक-सा सिद्धान्त (प्रतिज्ञा) दोनों तीर्थंकरों का है। विवेचन–विसेसे किं नु कारणं : तात्पर्य यह कि मोक्ष रूप साध्य समान होने पर भी दोनों तीर्थंकरों ने अपने-अपने तीर्थ के साधुओं को यह वेषभेद क्यों उपदिष्ट किया? दोनों तीर्थंकरों की धर्माचरणव्यवस्था में ऐसे भेद का क्या कारण है? जब कार्य में अन्तर होता है तो कारण में भी अन्तर हो जाता है, किन्तु यहाँ मुक्तिरूप कार्य में किसी तीर्थंकर को भेद अभीष्ट नहीं है, फिर क़ारण में भेद क्यों? समाधान—जिस प्रकार तीर्थंकर के काल में जो उचित था, उन्होंने अपने केवलज्ञान के प्रकाश में भलीभांति जान कर उस-उस धर्मसाधन (साधुवेष तथा चिह्न सम्बन्धी वस्त्र तथा अन्य उपकरणों) को रखने की अनुमति दी। आशय यह है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य ऋजुजड और वक्रजड होते हैं, यदि उनके लिए रंगीन वस्त्र धारण करने की आज्ञा दे दी जाती तो वे ऋजुजड और वक्रजड होने के कारण वस्त्रों को रंगने लग जाते, इसीलिए प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकरों ने वस्त्र रंगने या रंगीन वस्त्र पहनने का निषेध करके केवल श्वेत और वह भी परिमित वस्त्र पहनने की आज्ञा दी है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शिष्य ऋजुप्राज्ञ होते हैं, इसलिए उन्होंने रंगीन वस्त्र धारण करने की आज्ञा प्रदान की है। व्यवहार और निश्चय से मोक्ष-साधन - निश्चयनय की दष्टि से तो मोक्ष के वास्तविक साधन सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र हैं। इस विषय में दोनों तीर्थंकर एकमत हैं, किन्तु निश्चय से सम्यग्दर्शनादि किसमें हैं, किसमें नहीं हैं, इसकी प्रतीति साधारणजन को नहीं होती। इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लेना आवश्यक है। साधु का वेष तथा प्रतीकचिह्न रजोहरण-पात्रादि तथा साध्वाचारसम्बन्धी बाह्य क्रियाकाण्ड आदि ये सब व्यवहार हैं। इसलिए कहा गया है— 'लोक में लिंग (वेष, चिह्न आदि) का प्रयोजन है।' आशय यह है कि तीर्थंकरों ने अपने-अपने युग में देशकाल, पात्र आदि देख कर नाना प्रकार के उपकरणों का विधान किया है, अथवा वर्षाकल्प आदि का विधान किया है। व्यवहारनय से मोक्ष के साधनरूप में वेष १. (क) बृहद्वृत्ति, अभिधान रा. को.भा. ३, पृ. ९६२ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९१२ २. (क) बृहद्वत्ति, अभि. रा. को. भा. ३, पृ. ९६२ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका भा. ३, पृ. ९१२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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