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तेईसवाँ अध्ययन : केशी-गौतमीय
३६९ असद्विवेकशालिनी बुद्धि) में महान अन्तर है। अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं की बुद्धि वक्रजड है, बुद्धि वक्र होने के कारण प्रतिबोध के समय तर्क-वितर्क और विकल्पों का बाहुल्य उसमें होता है, जिससे साधुओं का आचार (महाव्रतादि) को वह जान-समझ लेती है, किन्तु उसका पालन करने में कदाग्रही होने से उनकी बुद्धि कुतर्क-कुविकल्पजाल में फंस कर जड़ (वहीं ठप्प) हो जाती है। इसीलिए उनके पंचमहाव्रत रूप धर्म बताया गया है। जबकि दूसरे तीर्थंकर से लेकर भगवान् पार्श्वनाथ तक (मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों) के साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं। वे आसानी से साधुधर्म के तत्त्व को ग्रहण भी कर लेते हैं और बुद्धिमत्ता से उसका पालन भी कर लेते हैं। यही कारण है कि भ. पार्श्वनाथ ने उन्हें चातुर्यामरूप धर्म बताया। फिर भी वे परिग्रहत्याग के अन्तर्गत स्त्री के प्रति आसक्ति एवं वासना को या कामवासना को आभ्यन्तर परिग्रह समझ कर उसका त्याग करते थे। प्रथम तीर्थंकर के साधु सरल, किन्तु जड़ होते थे, वे साधुधर्म के तत्त्व को या शिक्षा को कदाचित् सरलता से ग्रहण कर लेते, किन्तु जडबुद्धि होने के कारण उसी धर्मतत्त्व के दूसरे पहलू में गड़बड़ा जाते। इसलिए उनके द्वारा साधुधर्माचार को शुद्ध रख पाना कठिन होता था।
तात्पर्य यह है कि धर्मतत्त्व का निश्चय केवल श्रवणमात्र से नहीं होता, अपितु प्रज्ञा से होता है। जिसकी जैसी प्रज्ञा होती है, वह तदनसार धर्मतत्त्व का निश्चय करता है। भगवान महावीर के युग में अधिकांश साधकों की बुद्धि प्रायः वक्रजड होने से ही उन्होंने पंचमहाव्रतरूप धर्म बताया है। जबकि भ. पार्श्वनाथ के साधुओं की बुद्धि ऋजुप्राज्ञ होने से चार महाव्रत कहने से ही काम चल गया। द्वितीय प्रश्नोत्तर : अचेलक और विशिष्टचेलक धर्म के अन्तर का कारण
२८. साहु गोयम! पन्ना ते छिन्नो मे संसओ इमो।
___ अन्नो वि संसओ मज्झं तं मे कहसु गोयमा!। [२८] (कुमारश्रमण केशी) हे गौतम! आपकी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। आपने मेरा यह संशय मिटा दिया, किन्तु गौतम! मुझे एक और सन्देह है, उसके विषय में भी मुझे कहिए।
२९. अचेलगो य जो धम्मो जो इमो सन्तरुत्तरो।
देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महाजसा।। [२९] यह जो अचेलक धर्म है, वह वर्द्धमान ने बताया है और यह जो सान्तरोत्तर (जो वर्णादि से विशिष्ट एवं बहुमूल्य वस्त्र वाला) धर्म है, वह महायशस्वी पार्श्वनाथ ने बताया है।
३०. एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं?।
लिंगे दुविहे मेहावि? कहं विप्पच्चओ न ते?।। [३०] हे मेधाविन् ! एक ही (मुक्तिरूप) कार्य (उद्देश्य) से प्रवृत्त इन दोनों (धर्मों) में भेद का कारण क्या है? दो प्रकार के वेष (लिंग) को देख कर आपको संशय क्यों नहीं होता?
___३१. केसिमेवं बुवाणं तु गोयमो इणमब्बवी।
विनाणेण समागम्म धम्मसाहणमिच्छियं।। १. (क) उत्तरा. बृहद्वत्ति, पत्र ५०२ (ख) अभिधानराजेन्द्रकोश भा. ३ 'गोतमकेसिज्ज' शब्द, पृ. ९६१