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उत्तराध्ययनसूत्र
_ [२१] केशी ने गौतम से कहा—'हे महाभाग ! मैं आप से (कुछ) पूछना चाहता हूँ।' केशी के ऐसा कहने पर गौतम ने इस प्रकार कहा
२२. पुच्छ भन्ते! जहिच्छं ते केसिं गोयममब्बवी।
___ तओ केसी अणुन्नाए गोयमं इणमब्बवी।। [२२] 'भंते ! जैसी भी इच्छा हो, पूछिए।' अनुज्ञा पा कर तब केशी ने गौतम से इस प्रकार कहा
२३. चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ।
देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणी॥ [२३] "जो यह चातुर्याम धर्म है, जिसका प्रतिपादन महामुनि पार्श्वनाथ ने किया है, और यह जो पंचशिक्षात्मक धर्म है, जिसका प्रतिपादन महामुनि वर्धमान ने किया है।"
२४. एगकज्जपवन्नाणं विसेसे किं नु कारणं?।
धम्मे दुविहे मेहावि! कहं विप्पच्चओ न ते?। [२४] 'मेधाविन् ! दोनों जब एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं, तब इस विभेद (अन्तर) का क्या कारण है? इन दोनों प्रकार के धर्मों को देखकर तुम्हें विप्रत्यय (-सन्देह) क्यों नहीं होता?'
२५. तओ केसिं बुवंतं तु गोयमो इणमब्बवी।
पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छयं ।। [२५] केशी के इस प्रकार कहने पर गौतम ने यह कहा—तत्त्वों (जीवादि तत्त्वों) का जिसमें विशेष निश्चय होता है, ऐसे धर्मतत्त्व की समीक्षा प्रज्ञा करती है।
२६. पुरिमा उज्जुजडा उ वंकजडा य पच्छिमा।
मज्झिमा उज्जुपन्ना य तेण धम्मे दुहा कए।। [२६] प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु (सरल) और जड़ (मन्दमति) होते हैं, अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं, (जबकि) बीच के २२ तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं। इसीलिए धर्म के दो प्रकार किये गये हैं।
२७. पुरिमाणं दुव्विसोझो उ चरिमाणं दुरणुपालओ।
___ कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसोझो सुपालओ।। [२७] प्रथम तीर्थंकर के साधुओं द्वारा कल्प–साध्वाचार दुर्विशोध्य (अत्यन्त कठिनता से निर्मल किया जाता) था, अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं द्वारा साध्वाचार (कल्प) का पालन करना कठिन है, किन्तु बीच के २२ तीर्थंकरों के साधकों द्वारा कल्प (साध्वाचार) का पालन करना सुकर (सरल) है।
विवेचन धर्म का निर्णय प्रज्ञा पर निर्भर केशी कुमार श्रमण ने जब गौतम से दोनों तीर्थंकरों के धर्म के अन्तर का कारण पूछा तो उन्होंने कारण का मूलसूत्र बता दिया कि 'धर्मतत्त्व का निश्चय प्रज्ञा करती है।' तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय के साधुओं और भगवान् महावीर के साधुओं की प्रज्ञा (सद्