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तेईसवाँ अध्ययन : केशी-गौतमीय
[१९] वहाँ कौतूहल की दृष्टि से अनेक अबोधजन, अन्य धर्म-सम्प्रदायों के बहुत-से पाषण्डपरिव्राजक आए और अनेक सहस्र गृहस्थ भी आ पहुँचे थे ।
२०. देव-दाणव- गन्धव्वा जक्ख- रक्खस- किन्नरा । अदिसाणं च भूयाणं आसी तत्थ समागमो ।।
[२०] देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर और अदृश्य भूतों का वहाँ अद्भुत समागम (मेलासा) हो गया।
विवेचन—पडिरूवन्नू : प्रतिरूपज्ञ – जो यथोचित विनयव्यवहार को जानता है, वह । १
जेठ्ठे कुलमविक्खंतो — पार्श्वनाथ भगवान् का कुल ( अर्थात् — सन्तान) पहले होने से ज्येष्ठवृद्ध है, इसका विचार करके गौतमस्वामी ने अपनी ओर से केशीकुमार श्रमण से मिलने की पहल की और तिन्दुक वन में जहाँ केशी श्रमण विराजमान थे, वहाँ आ गए। २
पलालं फासूयं ० - साधुओं के बिछाने योग्य प्रासुक (अचित्त और एषणीय) पलाल (अनाज को कूट कर उसके दाने निकाल लेने के बाद बचा हुआ घास– तृण) प्रचवनसारोद्धार के अनुसार पांच प्रकार के हैं(१) शाली (कलमशाली आदि विशिष्ट चावलों) का पलाल, (२) ब्रीहिक (साठी चावल आदि) का पलाल, (३) कोद्रव (कोदों धान्य) का पलाल, (४) रालक ( कंगू या कांगणी) का पलाल और (५) अरण्यतृण (श्यामाक-सांवा चावल आदि) का पलाल । उत्तराध्ययन में पाचवाँ कुश का तृण (घास) माना गया है । ३
पासंडा – 'पाषण्ड' शब्द का अर्थ यहाँ घृणावाचक पाखण्डी (ढोंगी, धर्मध्वजी) नहीं, किन्तु अन्यमतीय परिव्राजक या श्रमण अथवा व्रतधारी ( स्वसम्प्रदाय प्रचलित आचार-विचारधारी) होता है। बृहद्वृत्तिकार के अनुसार 'पाषण्ड' का अर्थ अन्यदर्शनी परिव्राजकादि हैं।
अदिस्साणं च भूयाणं— अदृश्य भूतों से यहाँ आशय है ऐसे व्यन्तर देवों से जो क्रीड़ापरायण होते हैं। प्रथम प्रश्नोत्तर: चातुर्यामधर्म और पंचमहाव्रतधर्म में अन्तर का कारण
२१.
पुच्छामि से महाभाग ! केसी गोयममब्बवी । तओ केसिं बुवंतंतु गोयमो इणमब्बवी ।।
१. 'प्रतिरूपो यथोचितविनयः, तं जानातीति प्रतिरूपज्ञः ।' २. 'ज्येष्ठं कुलमपेक्ष्यमाणः, ज्येष्ठं वृद्धं प्रथमभवनात् पार्श्वनाथस्य, कुलं - सन्तानं विचारयत इत्यर्थः । - 3. तणपणगं पन्नत्तं जिणेहिं कम्मट्ठगंठिमहणेहिं ।
साली वीही कोद्दव, रायला रण्णे तणाई च ।।
४.
- बृहद्वृत्ति, पत्र ५००
३६७
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इति वचनात् चत्वारि पलालानि साधुप्रस्तरणयोग्यानि । पंचमं तु दर्भादि प्रासुकं तृणं ।
(क) पाषण्डं - व्रतं, तद्योगात् पाषण्डाः, शेषव्रतिनः । - - बृहद्वृत्ति, पत्र ५०१
(ख) अशोक सम्राट का १२ वाँ शिलालेख । (ग) 'अन्यदर्शिनः परिव्राजकादयः । '
५. अदृश्यानां भूतानां केलीकिलव्यन्तराणाम् ।
• प्रवचनसारोद्धार गा. ६७५, बृहद्वृत्ति, पत्र ५०१
- उत्तरा वृत्ति, अभिधानराजेन्द्र को. भा. ३, पृ. ९६१
- उत्तरा वृत्ति, अभिधानराजेन्द्र को. भा. ३, पृ. ९६१
वही, पत्र ५००