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उत्तराध्ययनसूत्र केशी गौतमीय * सबसे मुख्य प्रश्न थे दोनों के परम्परागत महाव्रतधर्म, आचार और वेष में जो अन्तर था, उसके
सम्बन्ध में। जो अचेलक-सचेलक तथा चातुर्याम-पंचमहाव्रतधर्म तथा वेष के अन्तर से सम्बन्धित थे। गौतम ने आचार-विचार अथवा धर्म एवं वेष के अन्तर का मल कारण बताया-साधकों की प्रज्ञा। प्रथम तीर्थंकर के शासन के श्रमण ऋजुजड़ प्रज्ञावाले, द्वितीय से २३ वें तीर्थंकर (मध्यवर्ती) तक के श्रमण ऋजुप्राज्ञ बुद्धिवाले तथा अन्तिम तीर्थंकर के श्रमण वक्रजड़ प्रज्ञावाले होते हैं। इसी दृष्टि से भगवान् पार्श्वनाथ और भ. महावीर के मूल उद्देश्य-मोक्ष तथा उसके साधन–में (निश्चयदृष्टि से) सम्यग्दर्शनादि में समानता होते हुए भी व्यवहारनय की दृष्टि से त्याग, तप, संयम आदि के आचरण में विभिन्नता है। देश, काल, पात्र के अनुसार यह भेद होना स्वाभाविक है। बाह्य आचार और वेष का प्रयोजन तो सिर्फ लोकप्रत्यय है। बदलती हुई परिस्थिति के अनुसार भ. महावीर ने देशकालानुसार धर्मसाधना का व्यावहारिक विशुद्ध रूप प्रस्तुत किया है। वे आज के
फैले हुए घोर अज्ञानान्धकार में दिव्य प्रकाश करने वाले जिनेन्द्रसूर्य हैं। * इसके पश्चात् केशी कुमार द्वारा शत्रुओं, बन्धनों, लता, अग्नि, दुष्ट अश्व, मार्ग-कुमार्ग, महाद्वीप,
नौका आदि रूपकों को लेकर अध्यात्मिक विषयों के सम्बन्ध में पूछे जाने पर गौतमस्वामी ने उन
सब का समुचित उत्तर दिया। * अन्त में—लोक में दिव्यप्रकाशक तथा ध्रुव एवं निराबाधस्थान (निर्वाण) के विषय में केशी कुमार
ने प्रश्न किये, जिनका गौतम स्वामी ने युक्तिसंगत उत्तर दिया।२ * गौतमस्वामी द्वारा दिये गये समाधान से केशीकुमार श्रमण सन्तुष्ट और प्रभावित हुए। उन्होंने
गौतमस्वामी को संशयातीत एवं सर्वश्रुतमहोदधि कह कर उनकी प्रज्ञा की भूरि-भूरि प्रशंसा की है तथा कृतज्ञताप्रकाशनपूर्वक मस्तक झुका कर उन्हें वन्दन-नमन किया। इतना ही नहीं, केशी कुमार ने अपने शिष्यों सहित हार्दिक श्रद्धापूर्वक भ. महावीर के पंचमहाव्रतरूप धर्म को स्वीकार किया है। वास्तव में इस महत्त्वपूर्ण परिसंवाद से युग-युग के सघन संशयों और उलझे हुए प्रश्नों का
यथार्थ समाधान प्रस्तुत हुआ है। * अन्त में - इस संवाद की फलश्रुति दी गई है कि इस प्रकार के पक्षपातमुक्त, समत्वलक्षी परिवंसाद
से श्रुत और शील का उत्कर्ष हुआ, महान् प्रयोजनभूत तत्त्वों का निर्णय हुआ। इस धर्मचर्चा से
सारी सभा सन्तुष्ट हुई। * अन्तिम गाथा में जो प्रशस्ति दी गई है, वह अध्ययन के रचनाकार की दृष्टि से दी गई प्रतीत होती है। * वस्तुतः समदर्शी तत्त्वदृष्टाओं का मिलन, निष्पक्ष चिन्तन एवं परिसंवाद बहुत ही लाभप्रद होता है।
वह जनचिन्तन को सही मोड़ देता है, युग के बदलते हुए परिवेष में धर्म और उसके आचारविचार एवं नियमोपनियमों को यथार्थ दिशा प्रदान करता है, जिससे साधकों का आध्यात्मिक विकास निराबाधरूप से होता रहे। संघ एवं धार्मिक साधकवर्ग की व्यवस्था सुदृढ़ बनी रहे।
כך
१. उत्तराध्ययन मूलपाठ अ. २३, गा. १ से १० तक ३. उत्तरा० मूलपाठ अध्याय २३, गाथा ८५ से ८९ तक
२. उत्तरा. मूलपाठ अ. २३, गा. ११ से ८४ तक